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________________ ३१० ] ( ३ ) दिल्ली टिम जेल भेज दिया गया । अण्डमानमें स्थान रिक्त न होनेके कारण पंजाबके जीवन - पर्यन्तके सजायाफ्ताक़दी यहीं रक्खे जाते थे । हमें भी यहाँ एक वर्ष रहनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ । ४ बजेका समय था, मैं अपना बान बाँटकर बैठा ही था कि लाल बनारसीदास ( जेलबाबू ) आये और किताबका पार्सल दिखाकर बोले "यह पार्सल आपका है ?" " जी ।" "क्या आप जैन हैं ?” "aft 1" "आप लोग, सुना है गोश्त नहीं खाते" ? (व्यंग्यात्मक हँसी) "जी, हम लोग गोश्त नहीं खाते" । "क्यों ?” "जैनोंका विश्वास जो किसीमें जान नहीं डाल सकता वह किसीकी जान नहीं ले सकता । हमें दूसरों के साथ वही व्यवहार करना चाहिये, जिस व्यवहार के लिये हम उनसे इच्छुक हैं । जैसी करनी वैसी भरनीके जैन क़ायल हैं। आज जो शक्तिके मदमें दूसरों को कष्ट पहुँचाते हैं, उन्हें एक न एक रोज़ अपराधियोंखड़ा होना होगा । दादा के लिये का मैदाँ होगा । हाथ मक़तूलका क़ातिलका गिरेबाँ होगा ॥ “ओह, माफ करना, मैंने आपसे जो आपके ज़मीर के खिलाफ थी । " “नहीं, यह तो आपका सौजन्य है जो आपने एक कैदीसे बात की, वर्ना यहाँ कौन किसीसे बात करता है ?" ऐसी बात की “सुना है, जैन झूठ नहीं बोलते ?” “हाँ, बोलना तो नहीं चाहिये । पर, कलङ्क तो चन्द्रमामें भी होता है । क्या कहा जासकता है, पाँचों Jain Education International कान्त [ वर्ष aai हीं होती ।" "इस पार्सल में किताबें कैसी आई हैं ? राजनैतिक या सरकारविरोधी तो नहीं हैं ?" " "जी, मैं देखकर अभी बतलाये देता हूं। आप विश्वास रखें जेल - नियम विरुद्ध किताब मैं एक भी नहीं रखूँगा।" किताबें धर्मबन्धु लाला पन्नालालजी अग्रवालने दिल्ली से सब धार्मिक भेजी थीं । किताबें लाला बनारसीदासको भी पढ़ने दी गईं तो उन्हें गोश्त से घृणा होने लगी। उन्होंने कई बार कहा कि इन किताबों के पढ़नेसे हम पति-पत्नी के दिलपर बड़ा असर हुआ है । वह अक्सर मुझसे तत्वचर्चा करने आता था । (8) जेल में साग-दाल में प्याज-लहसन इतना पड़ता था कि खाना तो दरकिनार उसकी गन्धसे हो जी ऊपर-ऊपरको आने लगता था । अत: क़रीब ५-६ माह रूखी रोटी, पानी या गुड़के सहारे पेटमें उतरती । एक रोज़ भोजन करते समय लाला बनारसीदास पहुँचे। इस तरह रूखी रोटी खाते देखकर सबबपूछा तो साथियोंने बतला दिया कि यह प्याज लहसन नहीं खा सकते । सुना तो बेहद बिगड़े | तुम लोगोंने मुझे क्यों नहीं कहा ? ये रूखी रोटी खाते रहते हैं और तुम लोग मजेसे इनके सामने दाल - साग खाते रहते हो। यदि तुम लोग ५० आदमी तैयार हो जाओ तो आजसे ही प्याज-लहसनरहित दाल - सागका ऐतराज होता. वह तो मजबूरन खाते थे। दूसरे दिन प्रबन्ध किया जा सकता है। साथियोंको इसमें क्या ६०-७० के लिये प्याज-लहसनरहित भोजन लगा। मिष्टगुमरीमें भोजन जेलका बना ही मिलता था । दिल्लीकी तरह हमारा प्रबन्ध नहीं था । (शेष हवी किरण में) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527258
Book TitleAnekant 1948 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size13 MB
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