Book Title: Anekant 1948 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

View full book text
Previous | Next

Page 39
________________ . किरण८] अतिशय क्षेत्र श्रीकुण्डलपुरजी भरखे हैं। इतिहासकारों के सम्मुख एक बड़ी पहेली यह है कि आखिर ऐसी कौनसी बात छठवीं शताब्दीमें या इसके पूर्व यहाँपर घटित हुई जिसके कारण यहाँ बड़े बाबाकी ऐसी विशाल प्रतिमाका निर्माण हुआ । ध्यान रहे कि इस कालमें इस स्थानपर गुप्त शासकोंका शासन था जो जैनधर्मानुयायी भी थे । कुछ इतिहास - कार' मानते हैं कि यह वही कुण्डलपुर नामक स्थान है जहाँसे अन्तिम श्रुतकेवली श्रीधर स्वामी मोक्ष गये थे और इसलिये यह निर्वाणभूमि होनेके कारण प्राचीन काल से ही इस तरह पूज्यनीय बना चला आरहा। खैर ! बात जो भी हो, परन्तु निर्णय या अधिकारपूर्वक तभी कुछ कहा जा सकता है जबकि जैन विद्वान् भी इस विषयपर एकमत हों । इस क्षेत्रकी बुन्देल - शासकोंके कालमें अधिक उन्नति हुई, यह निर्विवाद सिद्ध है और इसके प्रमाणस्वरूप बड़े बाबा के प्रवेश द्वार पर लगा शिलालेख अब भी विद्यमान है । सैकड़ों वर्षकी धूप और वर्षाने बड़े बाबा मन्दिर को न मालूम कब जीर्ण-शीर्ण बना दिया और वह ढकर एक टीलेका रूप धारण कर चुका जिससे लोग उसे मन्दिर-टीला नामसे सम्बोधित करने लगे । परन्तु उस टीमें बड़े बाबा पूर्ण सुरक्षित और अखण्ड बने रहे । मन्दिर-टीला नाम शिलालेखमें मिलता है ।" । इस प्रकार बड़े बाबाकी वह कीर्ति और यश कुछ समयके लिये लोप- सा हो गया। उस स्थानपर भीहड़ झाड़ियों वृक्षों और जङ्गली पशुओंका निवास होजानेसे मनुष्यका गमन ही बन्द-सा हो गया । हाँ, कुछ लोग यह जानते रहे कि अमुक ग्राममें मन्दिर - टीले नामक स्थानपर एक विशाल जैन प्रतिमा मौजूद है । इस प्रकार यह प्राचीन मन्दिर करीब २०० वर्ष तक समाधिस्थ बना रहा। संवत् १७७० या इसके करीब श्रीमूलसंघ बलात्कार १ जिनकी यह मान्यता है उनमेंसे एक दोके नाम यहाँ प्रकट कर दिये जाते तो अच्छा होता । - कोठिया Jain Education International [ ३२३ गण सरस्वती भक्तविद्याधीश आचार्य श्रीसुरेन्द्रकीर्तिजी कुन्दस्वामी कुन्दकुन्दाचार्यके वंशज अपने शिष्यों सहित इस स्थानपर दर्शन हेतु पधारे। बड़े बाबाके दर्शनसे वे बड़े प्रभावित हुए और उनके शिष्य श्री सुचन्दगणिजीने मन्दिरके जीर्णोद्धारके हेतु भिक्षा माँगनेकी आज्ञा गुरुसे ली । आप मन्दिरजीका कुछ हिस्सा ही बनवा पाये थे कि दैवदुर्विपाकसे आपकी आयु पूर्ण होगई तब उनके सच्चे मित्र नमिसागरजी ब्रह्मचारीने इस अधूरे कार्यको पूर्ण करनेका बीड़ा उठाया । इसी समय बुन्देलखण्डगौरव शूर-वीर-सम्राट् क्षत्रसाल मुगल- आततायियों द्वारा सताए हुये अपनी राजधानी पन्ना छोड़कर मारे-मारे इधर-उधर सहायता और अपना राज्य वापिस लेनेके प्रयत्नमें फिर रहे थे । मनुष्यका जहाँ वश नहीं चलता वहाँ वह अपने- को भगवानके बलपर छोड़ देता है । यही हाल महाराजाधिराज क्षेत्रसालका हुआ । वे बड़े बाबा के दरबार में आए। नमिसागरजी ब्रह्मचारीसे उनकी भेंट हुई । ब्रह्मचारीजीने उनके सामने भी मन्दिरजी की मरम्मत के लिये हाथ फैला दिये । परन्तु सम्राट् लाचार थे । वे खुद ही विपत्तिके मारे फिर रहे थे। तो भी सम्राट्ने साहस बटोर कर प्रतिज्ञा की कि यदि 'पुनः अपना राज्य वापिस पाऊँ तो इस मन्दिरजीका जीर्णोद्धार कोषकी तरफसे करा दूँगा । मैं आप इसे अतिशय कहिये या सम्राटका पुण्योदय कि उन्हें फिर से अपना राज्य वापिस मिल गया । जीका जीर्णोद्धार कार्य शुरू होगया । साथ ही मध्यवे अपनी प्रतिज्ञा नहीं भूले और शाही - कोष से मन्दिर - स्थित तालाबके चारों ओर घाट बनवाए जाने लगे। संवत् १७५७ मघा नक्षत्र माघ सुदी १५ सोमवार को जीर्णोद्धार कार्य पूर्ण हुआ । इस अवसर पर महाराजाधिराज क्षत्रंसाल मन्दिर - जीकी प्रतिष्ठा हेतु स्वयं श्रीकुण्डलपुरजी पधारे । उन्होंने बड़े बाबाकी पूजन की और द्रव्य, वर्तन तथा सोने-चाँदीके चमर-छत्र भी भेंट किये। उनका दिया पीतलका एक थाल (कोपर) अब भी श्रीकुण्डलपुरजी + For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44