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अतिशय क्षेत्र श्रीकुण्डलपुरजी
( लेखक - श्रीरूपचन्द बजाज )
जी० आई० पी० रेलवेके बीना और कटनी जंकशनके मध्य, दमोह स्टेशनसे २४ मील दूर, पटेरा रोडपर कुण्डलाकार उच्च पर्वतमालाओंमें मध्यके शिखरपर, पृथ्वीके गर्भ में, १४०० वर्षकी सभ्यता, संस्कृति और इतिहास छुपाए समुद्र सतह से करीब ३००० फुट ऊँचाईपर, कुण्डलपुर नामक स्थानमें, ३ फुट ऊँचे सिंहासनपर, १२ फुट ऊँचाईके पद्मासन आकार में ध्यान-मुद्रा लगाए, भगवान महावीर विराजमान हैं और सारे जगतको उपदेश दे रहे हैं कि
“हे मनुष्य पृथ्वीके क्षणभङ्गुर सुखोंको छोड़ | सुख आत्माकी वस्तु है जिसे श्रात्मध्यानद्वारा ही पाया जा सकता है । यदि सच्चा सुख चाहता है तो आजा मेरे पास और होजा मेरे समान ।”
कुण्डलाकार पर्वतमालाओं के मध्य वर्द्धमानसागर नामक सुन्दर सरोवर है, जिसमें किनारे तथा पर्वतोंपर विद्यमान ५८ जिन - मन्दिर प्रतिविम्बित होते हैं । सौन्दर्यकी श्री द्वितीय तथा विशालकाय पद्मासनप्रतिमाके रूपमें यह स्थान भारतवर्ष में प्रायः प्रथम श्रेणीका है।
दमोह श्रीकुण्डलपुरी तक रास्ता कच्चा होनेके कारण फिलहाल यात्रा बैलगाड़ी, ताँगा और निजी मोटरद्वारा की जाती है, परन्तु शीघ्र ही जनपदसभा तथा राष्ट्रीय सरकारद्वारा पक्का रास्ता बनानेकी योजना कार्यरूपमें परिणत होनेवाली है। तब तो यह अछूता स्थान प्रकाशमें आकर इतिहासकारों तथा प्राकृतिक सौन्दर्य प्रेमियोंके लिये एक आश्चर्यजनक पहेली बन जावेगा ।
यहाँपर कई ऐसे स्थान अभी भी विद्यमान हैं जहाँपर खुदाई तथा प्राचीनताकी खोज करनेकी
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अत्यन्त आवश्यकता है । छठवीं शताब्दीके एकदो मठ या मन्दिर जीर्णोद्धारके अभावमें मिट्टीके ढेर बन गये हैं तथा उनके निर्माणकाल आदिका पता लगाना बिलकुल ही असम्भव सा होगया है ।
यहाँका छठवीं शताब्दीसे ग्यारहवीं शताब्दी तक - का इतिहास अन्धकारमें है । संवत् १९८३ की प्रतिष्ठ सिंघई मनसुभाई रैपुरा निवासी द्वारा स्थापित प्रतिमासे फिर हमें कुछ प्रकाश मिलता है जिससे मालूम होता है कि उस समय तक यह स्थान जनसाधारणकी जानकारीमें पूर्णरूपेण था ।
इसके पश्चात् ४५० वर्षके इतिहासका कुछ पता नहीं चल रहा है। एक शिलालेख संवत् १५०१का एक 'मठमें मिलता है तथा उसके बाद सं० १५३२का प्रतिमालेख | इसी सदीकी अनेक प्रतिमा अभी तक स्थित हैं ।
बड़े बाबाकी पोछेकी दहलान बन्द है, जिसमें शायद कुछ इतिहास मिलता। बड़े बाबाके नीचे तहखाना भी बन्द है । बड़े बाबाकी बायीं जाँघके ऊपर एक छेद भी था जिसमें रुपया-पैसा डालनेपर वह आवाज करता हुआ अन्दर चला जाता था । इसे अपव्यय समझकर प्रबन्धकोंने बन्द तो कर दिया, परन्तु यह पता लगाने की आजतक कोशिश नहीं की कि आखिर वह सिक्का जाता कहाँ था ? मेरा अनुमान है कि बस छेका सम्बन्ध तहखानेसे है, तथा
१ अच्छा होता यदि छठवीं शताब्दीका साधक कोई श्राधार यहाँ प्रदर्शित किया जाता; क्योंकि जब 'मठ और मन्दिर मिट्टी के ढेर होगये और उनके निर्माणकाल आदिका पता लगाना बिल्कुल ही असम्भव सा होगया है ' तो यह निर्द्धारित कैसे किया गया कि वे छठवीं शताब्दीके हैं ? यदि ऐसा कोई शिलालेखादि प्रमाण उपलब्ध है तो लेखक महाशयको उसे प्रकाशमें लाना चाहिये । - कोठिया
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