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किरण ८]
अपहरणकी आगमें मुलसी नारियाँ
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कर दो. घरमें आग लगाकर उनका सर्वस्व भस्मीभूत बस गया ही गया । पर जीवन, शत्रुके हाथों में पड़नेकर डालो। भले ही इसके लिए महीना दो महीना पर भी उबर सकता है । यह भी निश्चित् है कि या वर्ष दो वर्ष भी प्रतीक्षा करनी पड़े, पर अपहरण जीवित स्त्रीको शत्रु या आततायी अपहरण कर ले के अपमानको न भूलो। अवसरकी हर घड़ी ताकमें जा सकता है और आजकी भाषामें उसका दुरुपयोग रहो और अवसर मिलते ही बदला लो। हिन्दू समाज भी हो सकता है. पर इस दुरुपयोगको, उस नारीकी के नेता नारियोंको बदलेका यह मन्त्र देकर ही चुप न भ्रष्टता या नैतिक पतन माननेको, हम कदापि तैयार हो जायें, अपनेको कर्तव्य-मुक्त न मान लें। वे यह नहीं हैं। आततायीका शरीरपर अधिकार कर लेना भी ध्यानमें रक्खें कि यदि कोई नारी ऐसा करके नैतिक पतन नहीं होता है। ऐसा होता, तो जेलमें लौटती है, तो उसे यही नहीं कि घरमें अपना स्थान बन्द स्वयं श्रद्धेय महात्माजी, पं. जवाहरलाल नेहरू मिले अपितु समाजमें सार्वजनिक रूपसे उस वीर- और मौलाना अबुलकलाम आजाद नैतिक दृष्टिसे नारीको अभिनन्दन भी मिले। हमारे समाजमें ऐसे पतित माने जाते । हमारी रायमें नैतिक पतन है २-४ भी अभिनन्दनोत्सव हो जायें तो वे अपहरणोंको आततायीके सामने झुक जाना, उसे अपनी आत्मा असम्भव बना दें । तब विरोधियोंके लिए हमारी सौंप देना, उसका हो जाना, उसे (विवशतामें ही सही) बहू-बेटियाँ गुड़की डली न रहेंगी. फास्फोरसकी अपना मान लेना और उस अपमानकोभूल जाना । टिकिया हो जायेंगी, जो हवा लगते ही जल उठती है आज हमें नारीको यह बताना है कि अपहरण और जला डालती है । गाँधीजोने लिखा था- मोर्चेका अन्तिम अध्याय नहीं है। अपह्रत होकर भा
"अगर मरनेका सीधा रास्ता ज़हर ही हो तो मैं नारी अपनी लड़ाई जारी रख सकती है और उसे कहँगा कि बेइज्जती करानेके बनिस्बत ज़हर खाकर मर जारी रखनी चाहिये। आज हम नारीको जो सबसे जाना बेहतर है ।...."जिन्हें खञ्जर रखना है वे भले बड़ा
वना है किही खञ्जर रखें लेकिन खञ्जरसे एक-दोका सामना अाक्रमणके समय उसे लड़ना है और अपहरणकिया जा सकता है सैकड़ोंका नहीं : खञ्जर तो
से बचना हैं । पर यदि अपहरण हो ही जाये, तो उसे कमज़ोरीका निशान है। आखिरकार जानपर खेल
अपना युद्ध जारी रखना है, हार नहीं माननी है, जानेकी तैयारी ही हर हालतमें औरतोंकी इजत बचा
थकना नहीं है, समयकी प्रतीक्षा करनी है और सकती है और कुछ न कर सकें तो वे अपनी जेबमें
निश्चितरूपसे उसे एक दिन अपने घर लौटना है। ज़हर ही रक्खं, जहर खाकर मरना नैतिक-पतनसे . औरना भी
को लटका दण्ड देकर और कहीं अच्छा है।"
पीढ़ियों तक स्मरण रखने योग्य एक चुभता-सा महात्माजीका यह उपाय निःसन्देह अमोघ है।
पाठ पढ़ा कर। और यह उत्सर्गकी उस भावनाका प्रतीक है जो अभी यह धोखा नहीं है, विश्वासघात नहीं है, नैतिक पिछले महायुद्धमें रूसके देशभक्त निवासियोंने बरती। पतन नहीं है, यह शास्त्रोंमें वर्णित और प्रमाणित वे जर्मनोंसे लड़े, जब उनके लिए जमे रहना असम्भव आपद्धर्म है, युद्धकी एक नीति है, रणका एक दाव है हो गया तो वे पीछे हटे, पर उस स्थानका कण-कण और निश्चय ही यह नारीका पवित्र गुरीला युद्ध है। फूंककर पीछे हटे। इस प्रकार जर्मनोंको केवल जले जहाँ खुला युद्ध सम्भव नहीं होता, वहाँ यह गुरीला हुए खण्डहर ही मिले।
युद्ध लड़ा जाता है और भारतकी नारीको आज इसी ___ हम इस भावनाका अभिनन्दन करते हैं, पर जड़ गुरीला युद्धकी शिक्षा लेनी है। सम्पत्ति और जीवित सम्पत्तिमें कुछ भेद दिखाई इस युद्ध में उसे टैक, मैशीनगन. राइफिल, बन्दूक देता है । जड़ पदार्थ जब शत्रुके हाथमें गया, तो फिर और तलवार नहीं मिले, तो कोई चिन्ता नहीं। शाक
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