Book Title: Anekant 1948 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 34
________________ ३१८ ] बनारनेका दराँत, सब्जी काटनेका चाकू, आग ठीक करनेका चिमटा, पतीली उतारनेकी सिण्डासी, तेज़ किनारेकी थाली या कटोरी, तेलसे भरी लालटैन और छतपरसे धक्का देनेको सधी हथेलियाँ उससे कौन छीन सकेगा ? यदि उसमें भावना हो तो उसके ये अस्त्र अग्निवाण सिद्ध होंगे और देशके इतिहासलेखक आनेवाले दिनोंमें इन अस्त्रोंके प्रयोगकी कलाका ऐसा गुणगान करेंगे कि सेनापति- रोमेल और मैकार्थरकी आत्माएँ ईर्ष्यासे उसे सुनेंगी। गाँधीजीने लिखा था अनेकान्त "भगाई गई लड़कियाँ बेगुनाह हैं। किसीको उनसे नफ़रत न करनी चाहिये । हर सही विचारनेवाले आदमीको उनपर तरस आना चाहिये और उनकी पूरी मदद करनी चाहिये । ऐसी लड़कियोंको अपने घरोंमें खुशी-खुशी और प्यारसे लौटा लेना चाहिये और उनके लायक लड़कोंसे उनकी शादी होनेमें कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिये ।” दिक्कत तो नहीं होनी चाहिये थी, किन्तु ऐसा कठिनाइयाँ हिन्दू नारियोंके उद्धार में बाधक अवश्य रही हैं । हम सनातन पन्थियोंको एक सनातन भूल खाये जा रही है । रावणका वध होजानेपर सीता रामके शिविर में आईं । सीता सोचती थीं - राम मुझे देखकर विह्वल हो उठेंगे, वे मुझे हृदयसे लगानेको दौड़ेंगे और मैं चटसे उनके चरणोंमें गिर जाऊँगी, उठायेंगे तो भी न उहूँगी और रोकर भीख मागूँगी कि नाथ, अब यह चरण सेवा पलभरको भी न छूटने पावे । किन्तु सीताकी यह आशा हवामें तैर गई। रामने सीताकी ओर देखा भी नहीं । गुप्तरूपसे हनुमानसे सीताके पवित्र बने रहनेकी बात पाकर भी उनका हृदय अविश्वासी हो उठा । कहा जाता है कि वे सीता के सतीत्वकी ओर से निश्चित थे, किन्तु लोक-लाजके लिए अग्नि परीक्षा आवश्यक थी । हम कहते हैं यही सबसे बड़ी भूल : रामने की थी । रावणके यहाँसे असती लौटनेपर भी सीताका कोई अपराध नहीं बनता । बलवान आततायियों के आगे शारीरिक सतीत्व रह ही नहीं सकता Jain Education International [ वर्ष फिर सतीत्व तो आत्माकी वस्तु है, उसका कोई भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता । अपवित्र पुगलको कोई दुष्ट बलात् अपवित्र करता है, तो इससे सतीका क्या बिगड़ता है ? सीताका सहर्ष स्वागत करके यदि राम यह परिपाटी डाल जाते कि हरण की हुई स्त्रियाँ हर दशामें पवित्र हैं और उन्होंने यदि सीताकी आलोचना करने वाले नीच धोबीकी यह कहकर जिह्वा काट ली होती कि जो निरपराध नारीको दोष लगाता है, उसको यही दण्ड मिलता है, तो आज स्त्रियोंकी जो यह दुरवस्था है, न हुई होती । आज तो स्थिति यह है कि हमारी जो बहन-बेटी गईं, सो गई; क्योंकि यदि उसे लौटने का अवसर मिलता भी है और वह आना भी चाहती है, तो वह सोचतो है कि जहाँ मैं जारही हूँ वहाँ मेरे लिये स्थान कहाँ है ? जूतेमें परसी रोटियाँ मिलेंगी और चारों ओर घृणा भरी आँखोंकी छाया । ऐसे अवसरोंपर पुरुष हैं ही, पर स्त्रियाँ भी अपनी उस बहनको सम्मान या प्यार नहीं दे पातीं । उनके व्यङ्गवाण तो उस समय इतने पैने होजाते हैं कि वे कलेजेको बींधनेमें चूकते ही नहीं । अपहृत होजानेपर भी आज नारीको जहाँ यह सीखना है कि वह हताश न हो और अपना गुरीला युद्ध जारी रक्खे, वहाँ हमें भी तो अपनी मनोवृत्ति में परिवर्तन करना है । यह परिवर्तन ही तो उस योद्धा नारीका असली बल है। प्यार और मानकी दुनिया उजाड़कर ठोकरोंके संसारमें कौन श्राना चाहेगा ? जो काम रामने नहीं किया, वह आजके समाजको करना है, उसे जीना है तो यह करना ही होगा । अपहरणसे लौटी हुई स्त्रियोंको भरपूर सम्मान मिलना चाहिये । उन्हें उनका स्थान मिलना चाहिये । उनके लिये सम्मान और स्थानकी गारण्टी करके ही हम इस युद्ध में विजय पा सकते हैं' । - गोयलीय १ यह लेख मेरी एक लेखमालाका श्रंश है जो सन् ४७के 'नया जीवन में प्रकाशित हुआ था तथा 'महारथी' 'सरिता' आदि कई पत्रोंने जिसे उद्धृत किया था । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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