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कारने यह कहीं नहीं लिखा कि उन्होंने गुणभद्रके उत्तरपुराणसे अपने ग्रन्थोंमें जीवन्धरचरित निबद्ध किया । गद्य चिन्तामणिका जो पद्य प्रस्तुत किया गया है उसमें सिर्फ इतना ही कहा है कि 'इसमें जीवन्धरस्वामीके चरितके उद्भावक पुण्यपुराणका सम्बन्ध होने अथवा मोक्षगामी जीवन्धरके पुण्यचरितका कथन होनेसे यह (मेरा गद्यचिन्तामणिरूप
- समूह) भी उभय लोकके लिये हितकारी है।' और वह पुण्यपुराण उपर्युक्त 'वागर्थसंग्रह भी हो सकता है । वह गुणभद्रका उत्तरपुराण है, यह उससे सिद्ध नहीं होता । इसके सिवाय, गद्य चिन्तामणिकारने वस्तुतः उस जीवन्धरचरितको गद्यचिन्तामणिमें कहने की प्रतिज्ञा को है जिसे गणधर कहा और अनेक सूरियों (आचार्यो) द्वारा— न कि केवल गुणभद्रद्वारा - जगतमें ग्रन्थरचनादिके रूप में प्रख्यापित हुआ है । यथा
अनेकान्त
इत्येवं गणनायकेन कथितं पुण्यास्रवं शृण्वतां तज्जीवन्धरवृत्तमत्र जगति प्रख्यापितं सूरिभिः । विद्यास्फूर्तिविधायि धर्मजननीवाणीगुणाभ्यर्थिनां वक्ष्ये गद्यमयेन वाङ्मयसुधावर्षेण वाक्सिद्धये ॥ २५॥ अतः वादीभसिंहको गुणभद्राचार्यका उत्तरवर्ती सिद्ध करनेके लिये जो उक्त हेतु दिया जाता है वह युक्तियुक्त न होनेसे वादीभसिंहके उपरोक्त समयका बाधक नहीं है ।
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२. दूसरी बाधाको उपस्थित करते हुए उसके उपस्थापक श्रीकुप्पुस्वामी शास्त्री और उनके समर्थक प्रेमीजी दोनों विद्वानोंको एक भ्रान्ति हुई है, जिसका अनुसरण अन्य विद्वानों द्वारा आज भी होता जारहा है और इस लिये उसका परिमार्जन होजाना चाहिए । वह भ्रान्ति यह है कि गद्यचिन्तामणिकी उक्त जिस गद्यको सत्यन्धर महाराजके शोकके प्रसङ्गमें कही गई बतलाई है वह उनके शोकके प्रसङ्ग में नहीं कही गई । पितु काष्ठाङ्गारके हाथीको जीवन्धरस्वामीने कड़ा मारा था. उससे क्रुद्ध हुए काष्ठाङ्गारके निकट जब जीवन्धरस्वामीको गन्धोत्कटने बाँधकर भेज दिया और काष्ठाङ्गारने उन्हें वधस्थान में लेजाकर फाँसी देनेकी सजाका हुकुम दे दिया तो सारा नगर में सन्नाटा
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छा गया और समस्त नगरवासी सन्तापमें मग्न हो गये तथा शोक करने लगे । इसी समयकी उक्त गद्य है। और जो पाँचवें लम्बमें पाई जाती है जहाँ सत्यन्धर-. का कोई सम्बन्ध नहीं है— उनका तो पहले लम्ब तक ही सम्बन्ध हैं । वह पूरी प्रकृतोपयोगी गद्य इस प्रकार है
'अ निराश्रया श्रीः, निराधारा धरा, निरालम्बा सरस्वती, निष्फलं लोकलोचनविधानम्, निःसारः संसारः, नीरसा रसिकता, निरास्पदा वीरता इति मिथः प्रवर्तयति प्रणयोद्गारिणीं वाणीम्
- पृ० १३१ । इस गद्यके पद-वाक्योंके विन्यासको देखते हुए यही प्रतीत होता है कि यह गद्य मौलिक है और वादीभसिंहकी अपनी रचना है। हो सकता है कि उक्त परिमल कविने इसी गद्यके पदोंको अपने उक्त श्लोक में समाविष्ट किया है । यदि उल्लिखित पद्यकी इसमें छाया होती तो अद्य' और 'निराधारा धरा' के बीच में 'निराश्रया श्रीः' यह पद न आता । छायामें मूल ही तो आता है । यही कारण है कि इस पदको शास्त्रीजी और प्रेमीजी दोनों विद्वानोंने पूर्वोल्लिखित गद्यमें उद्धृत नहीं किया -- उसे अलग करके और 'अद्य' को 'निराधारा धरा' के साथ जोड़कर उपस्थित किया है ! ऋतः यह दूसरी बाधा भी निर्बल एवं अपने विषयकी साधक है ।
पुष्पसेन और देव वादीभसिंहके साथ पुष्पसेनमुनि और प्रोडयदेवका सम्बन्ध बतलाया जाता है । पुष्पसेनको उनका गुरु और ओडयदेव उनका जन्म-नाम अथवा वास्तवनाम कहा जाता है। इसमें निम्न पद्य प्रमाणरूपमें दिये जाते हैं
पुष्पसेनमुनिनाथ इति प्रतीतो,
दिव्यो मनुर्हृदि सदा मम संनिदध्यात् । यच्छक्तितः प्रकृतमूढमतिर्जनोऽपि, वादीभसिंहमुनिपुङ्गवतामुपैति ॥
श्रीमद्वादी सिंहेन गद्यचिन्तामणिः कृतः । स्थेयादोडयदेवेन चिरायास्थानभूषणः ॥
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