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धर्मका रहस्य
( लेखक - पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री )
धर्मी चर्चा करना जितना सरल है उसके रहस्य (सत्यरूप) को हृदयङ्गम करना उतना ही कठिन है । यों तो अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य और परिग्रहपरिमाणको सबने धर्म माना है । पर क्या इतने मात्र हम धर्मका निर्णय कर सकते हैं ? यह एक सामान्य प्रश्न है जो प्रत्येक विचारशीलके हृदय में उठा करता है। और जबकि इन सब बातोंके रहते हुए भी इनके माननेवाले परस्पर में घात-प्रत्याघात करते हैं. बात-बातमें झूठ बोलते हैं, नफा-नुकसानको न्यूनाधिक बताकर चोरी करते हैं. अब्रह्मके सहायक साधनोंके जुटाने में लगे रहते हैं और जितना अधिक परिग्रह जुड़ता जाता है उतना ही अपना बड़प्पन समझते हैं तब उसका हृदय सन्तापसे जलने लगता है और वह क्रमशः धर्मकी निःसारताको जीवनमें अनुभव करने लगता है । वह यह मानने लगता है कि ईश्वरवादके समान यह भी एक वाद है जो व्यक्तिकी स्वतन्त्रताका शत्रु है और सब अनर्थोंकी जड है । परन्तु विचार करनेपर ज्ञात होता है कि यह सब धर्मका दोष नहीं है । किन्तु जिस धर्मका त्याग करनेके लिये धर्मकी उत्पत्ति हुई है यह उसीका दोष है । इस लिये मानवमात्रका कर्तव्य है कि वह धर्मका अनुसन्धान कर उसके सत्यरूपको समझनेका प्रयत्न करे ।
धर्म शब्द 'धृ' धातुमें 'मप्' प्रत्यय जोड़नेसे बनता है जिसका अर्थ धारण करनेवाला होता है । इसके अनुसार धर्म जीवनकी वह परिणति है जिसके धारण करनेसे प्रत्येक प्राणी अपनी उन्नति करने में सफल होता है ।
धर्म सब पदार्थों में व्याप रहा है । वह व्यापक सत्य है । जिसका जो स्वभाव है वही उसका धर्म है । जीवका स्वभाव ज्ञान, दर्शन है । वह रूप, रस, गन्ध
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और स्पर्शसे रहित है। राग, द्वेष, ईर्षा, मद, मात्सर्य, अज्ञान, अदर्शन आदि दोष भी उसमें नहीं हैं । घर, स्त्री, सन्तान, कुटुम्ब, धन, दौलत, शरीर, वचन, मन, इन्द्रियाँ, स्वदेश, विदेश, स्वराज्य, परराज्य आदि तो उसके हो ही कैसे सकते हैं । वह इनमें ममकार तथा अहङ्कार भी नहीं करता है । वह वर्णभेद तथा जातिभेदसे भी परे है । छूत, अछूतका भी भेद उसमें नहीं है । वह किसीका आदर ही करता है और न अनादर ही । स्वयं भी वह किसीसे पूजा - सत्कार नहीं चाहता । इच्छा और वासना तो उसे छू तक नहीं गई हैं। उसे न भूख लगती है और न प्यास ही । जन्म, जरा, मरण, आधि-व्याधि, आदि भी उसके नहीं होते । वह न तो शस्त्रसे काटा ही जा सकता है और न अनिसे जलाया ही जा सकता है । वह किसी अन्य वस्तुका कर्ता भोक्ता भी नहीं है । यदि कर्ता भोक्ता है भी तो प्रति समय होनेवाले अपने परिणामोंका ही कर्ता भोक्ता है । विश्व अनादि और अविनश्वर है । उसका बनानेवाला भी वह नहीं है । ऐसा सर्व शक्तिमान् ईश्वर भी नहीं है जिसने इसे बनाया हो । यह हमारा बुद्धि-दोष है जिससे हम सर्वशक्तिमान् ईश्वरकी कल्पना कर उसे विश्वका कर्ता मानते हैं। यद्यपि जीव ऐसा है किंतु अनादि कालसे मोह और अज्ञानवश वह अपने इस स्वभावसे च्युत हो रहा है। जैसे भोजनमें नमक मिला देनेपर उसका रस बदल जाता है या जैसे वर्षाका शुद्ध जल पात्रों के भेदसे अनेक रसवाला हो जाता है वैसे ही जीवके साथ कर्मका बन्धन होनेसे उसमें अनेक विकारी भाव पैदा होगये हैं । जिसके धारण करनेसे जीवके ये विकारी भाव दूर होते हैं उसीका नाम धर्म है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
धर्मका विचार मुख्यतः दो दृष्टियोंसे किया जाता है । पहली आध्यात्मिक दृष्टि है और दूसरी व्याव
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