Book Title: Anekant 1948 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 20
________________ ३०४ अनेकान्त हारिक । जिसमें आत्माकी विविध अवस्थाओंका कर्ता स्वयं आत्माको बतलाकर अपनी शुद्ध अवस्थाकी प्राप्तिके लिये आत्म-पुरुषार्थको जागृत किया जाता है वह अध्यात्म दृष्टि है और जिसमें अशुद्धताका कारण निमित्तको बतलाकर उसके त्यागका उपदेश दिया जाता है वह व्यावहारिक दृष्टि है। इस हिसाब से धर्म दो भागों में बँट जाता है - अध्यात्म धर्म और व्यवहार धर्म | अध्यात्म धर्मका दूसरा नाम निश्चय धर्म है और व्यवहार धर्मका दूसरा नाम उपचार धर्म है । पुराणों में एक कथा आई है। उसमें बतलाया है कि श्रमण भगवान महावीरके समय में वारिषेण और पुष्पडाल नामक दो मित्र थे । वारिषेण राजपुत्र था और पुष्पडाल वैश्यपुत्र । एक समय वारिषेण श्रमण भगवान महावीरका उपदेश सुनकर साधु हो गया 'जब यह बात पुष्पडालको ज्ञात हुई तो मित्रस्नेहवश वह भी दीक्षित होगया । पुष्पडाल साधुधर्ममें तो दीक्षित होगया किन्तु वह अपनी एकमात्र कानी स्त्रीको न भुला सका । । जब वारिषेणने इस बातको जाना तो वह विचारमें पड़ गया और गृहस्थ अवस्थाकी अपनी बत्तीस स्त्रियोंको दिखाकर उसका मोह दूर किया । यद्यपि इस कथानकमें पुष्पडालके सच्चे साधु न बन सकनेका कारण व्यवहारसे उसकी एकमात्र कानी स्त्रीको बतलाया गया है किन्तु आध्यात्मिक पहलू इससे भिन्न है । इस दृष्टिसे तो साधु बनने में बाधक ममताको ही माना जा सकता है। स्त्रियाँ दोनोंके थीं फिर भी एक साधु बन जाता है और दूसरा नहीं बन पाता है, इसका मुख्य कारण उनकी आन्तरिक परिगति ही है । बाह्य निमित्त तो उपचारसे ही किसी कार्यके होने या न होनेमें साधक बाधक माने जाते हैं। निश्चयसे जिस वस्तुकी जिस कालमें जैसी योग्यता होती है तदनुकूल कार्य होता है । निश्चय धर्म और व्यवहार धर्म इसी अन्तरको बतलाते हैं । इसीसे निश्चय हटि उपादेय मानी गई है और व्यवहार दृष्टि । इस प्रकार यद्यपि दृष्टि-भेद से धर्म दो बतलाये Jain Education International [ वर्ष ह गये हैं किन्तु धर्म दो नहीं हैं। यह तो एक ही वस्तुको दो पहलुओं से समझनेका तरीका है । प्रकृतमें धर्म है जीवका स्वभाव और अधर्म है जीवमें विकारी भाव । जहाँ अधर्मका त्याग कर धर्मको धारण करना चाहिये, ऐसा उपदेश दिया जाता है वहाँ इसका यह अर्थ लिया जाता है कि काम, क्रोध, ईर्ष्या, मद, मात्सर्य आदि विकारी भावोंका त्याग कर क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि भावोंको धारण करना चाहिये । अधिकतर लोक बाह्य क्रियाकाण्डपर अधिक जोर दिया है और उसे ही धर्म माना जाता है । आन्तरिक परिणतिके सुधारपर कदाचित् भी ध्यान नहीं दिया जाता है । यह स्थिति उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही है। जीवनके प्रत्येक क्षेत्र में इसका एकाधिकार है । जो अपनेको साधु, त्यागी या व्रती मानते हैं उनमें भी इस अवस्थाका बोलबाला है। हमने अपनेको साधु, त्यागी या व्रती माननेवाले ऐसे कई मनुष्य देखे हैं जो स्वभावसे क्रोधी हैं, मायावी हैं. दम्भी हैं या झूठ बोलते हैं और भोजनके समय आकाशपातालको एक कर देते हैं। उनका दावा है कि पिण्डशुद्धि ( शरीर शुद्धि) के बिना आत्म शुद्धि हो ही नहीं सकती। इसके लिये वे गायको नहला कर उसका दूध दुहाते हैं। चौकेमें धुले हुए कपड़े पहने ऐसे आदमी को, जिसे दूसरेने स्पर्श कर लिया हो, घुसने नहीं देते । हर किसीको पानी नहीं भरने देते । सिजाए हुए भोजनको चौकेसे बाहर नहीं लाने देते । छूताछूतको मानकर जिन्हें वे छूत समझते हैं उन सबके हाथका भोजन नहीं लेते। गृहत्यागी होकर भी पैसे रखते हैं और इस बातको अच्छा समझते हैं कि हम किसीका न खाकर अपना ही खाते हैं। स्वयं अपने हाथसे दाल, चावल आदि सोधते हैं । दिनका बहुभाग इसीमें निकाल देते हैं । धर्मको स्वीकार करने - कराने में भेद करते हैं । यह अवस्था केवल इन्हींकी नहीं हैं ऐसे कई गृहस्थ हैं जो इनका अन्धानुसरण करते है । " किन्तु जैनधर्म ऐसे क्रियाकाण्डको स्वीकार नहीं करता । भोजन शुद्धि एक बात है और भोजन शुद्धिके नामपर घृणा और अहङ्कारका प्रचार करना दूसरी For Personal & Private Use Only • www.jainelibrary.org

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