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किरण ८ ]
भूमिका तनिक लम्बी होगई । प्रत्येक व्यक्तिको यह ध्यान रखना आवश्यक है कि उसके कारण उसके देश-समाज आदि प्रतिष्ठित न हो सकें तो बदनाम भी न होने पाएँ । प्रसङ्गवश आपबीती कुछ घटनाएँ दी जारही हैं । ( १ )
दिल्ली में १९३० के नमक सत्याग्रहके पहले जत्थे में ५ सत्याग्रहियोंमें हम दो जैन थे । बाक़ी तीनमेंसे १ मुसलमान और दो बाहरके मज़दूरवर्गसे थे । ७०-८० हजारकी भीड़, हमें देहलीसे सत्याग्रह स्थल (सलीमपुर-शाहदरा ) की ओर पहुंचाने चली तो मार्ग में क़िलेके सामने जैन लालमन्दिर आया । प्रत्येक शुभ कार्यों में जैनी मन्दिर जाते ही हैं । अतः हम दोनों भी मन्दिरको देखते ही भीड़को रोककर दर्शनार्थं गये । इस तनिक-सी बातसे देहलीमें यह बात फैल गई कि देहली के दोनों सत्याग्रही जैन हैं । जैनोंने सबसे आगे बढ़कर अपनेको भेट चढ़ाया है । हाँ, भेट ही, क्योंकि उस समय किसीको गवर्नमेण्टके इरादेका पता नहीं था । हमें जब जत्थे में लिया गया तब काँग्रेस अधिकारियोंने स्पष्ट चेतावनी दे दी थी — “सम्भव है तुमपर घोड़े दौड़ाएँ जाएँ, गोलियाँ चलाई जाएँ, लाठियाँ बरसाई जाएँ, अङ्गहीन या अपाहिज बनाये जायें" । हर तरह के खतरोंको ध्यान में रखकर ही साबुत क़दम और पूर्ण अहिंसक बने रहने की हमने एक लाख जन-समूहमें प्रतिज्ञा की थी ।
अतः लोगोंको जब मालूम हुआ कि दोनों जैन हैं तो लोग अश-श करने लगे और जैन तो गले मिल मिलकर रोने लगे । “भाई तुम लोगोंने हमारी पत रखली” | नमक-सत्याग्रह हुआ। पुलिसने अण्डकोष पकड़कर घसीटे ; नमकका गरम पानी छीनाझपटीमें - शरीरोंपर गिरा । परन्तु सदैव इसी पत' का ध्यान बना रहा । व्यक्ति तो हमारे जैसे अनगिनत पैदा होंगे, पर 'पत' गई तो फिर हाथ न आयेगी । इसी भावनाने लहमेभरको विचलित नहीं होने दिया । ( २ )
व्यक्तित्व
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बन्दियोंके लिये शामके भोजनकी व्यवस्था दिनमें न होकर रात्रिमें होती है। हालाँकि जेल -नियमानुसार सूर्यास्त से पूर्व सब क़ैदी भोजन कर लेते हैं । परन्तु राजनैतिक बन्दी अपना भोजन रात्रिको ही बनवाते थे । रात्रिको भोजन न लेनेपर एक नेता बोले-“यहाँ दिन -विनका नियम नहीं चल पायेगा. इस पाखण्डबाजीको अब धता बताओ" । मैंने प्रकट में तो कुछ नहीं कहा, पर मनमें संकल्प किया - यह नियम अब की चोट निभेगा । हायरे हम, और हमारे नियम ! किसीसे मैंने कुछ कहा नहीं; उन लोगोंके भोजन-समय चुपचाप टल गया। परन्तु फिर भी पाखण्डीका फतवा नाजिल हो ही गया ! होना तो यह चाहिये था कि हमारे भूखे रहनेपर हमारे साथी भी रात्रिमें भोजन करते हुए कुछ सङ्कोच अनुभव करते और व्रतकी विशेषता और दृढ़ताकी प्रशंसा करते। इसके विपरीत हमारे मुँहपर ही इसे पाखण्ड बताया जा रहा है। मालूम होता है कोई न कोई त्रुटि हममें दिखाई अवश्य देती है :
नियाज़े इश्क़में खामी कोई मालूम होती है । तुम्हारी बरहम क्यों बरहमीं मालूम होती है ॥ भाई नन्हेमलका जेल में साथ छूट गया। हम दोनों जुदा-जुदा गिरफ्तार किये गये थे । अतः मैं अकेला ही उस समय जेल में जैन था ! मैंने गोयलीय के बजाय अपनेको तब जैन लिखना प्रारम्भ कर दिया था । २-४ रोज़ शामको भूखा रहना पड़ा होगा कि दिल्ली जेलवालोंने हम सी-क्लास बन्दियोंके लिये भोजनका प्रबन्ध हमारे सुपुर्द कर दिया । और हमने ऐसा प्रबन्ध किया कि सब सूर्यास्त से पूर्व भोजन कर लेते । हमारी भोजन-व्यवस्था, स्वच्छता, प्रेम-व्यवहारको देखकर सभी प्रसन्न हुए । यहाँ तक कि उन नेता महोदय के मुँह से भी अनायास निकल ही गया—
"भई जैनोंकी भोजन-व्यवस्था और स्वच्छताको कोई नहीं पहुँच सकता ! इन लोगोंका दिनमें भोजन करना और पानी छानकर पीना तो अनुकरणीय है । रात्रिमें लाख प्रयत्न करो कुछ न कुछ जीव-जन्तु पेटमें
जेल पहुंचने पर मालूम हुआ कि राजनैतिक चले ही जाते हैं और भोजन ठीक नहीं पचता" |
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