Book Title: Anekant 1948 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 14
________________ २९८] . अनेकान्त [वर्ष दिया । यदि वादीभसिंह जिनसेन और सोमदेवके किया हैं; जो प्राचीन परम्पराका द्योतक है' -भारतउत्तरकालीन होते तो वे, बहुत सम्भव था कि उनकी का एक भी जगह उल्लेख नहीं किया। इसस हम इस परम्पराको देते अथवा साथमें उन्हें भी देते। जैसा नतीजेपर पहुंचते हैं कि यदि वादीभसिंह न्यायकि पं० आशाधरजी आदि विद्वानोंने किया है। इसके मञ्जरीकार जयन्तभट्टके उत्तरवर्ती होते तो वे उनका अलावा वादीभसिंहने गुणवतों और शिक्षाव्रतोंके अन्य उत्तरकालीन विद्वानोंकी तरह जरूर अनुसरण सम्बन्धमें भी स्वामी समन्तभद्राचार्यकी रत्नकरण्डक- करते-'भारताध्ययनं सर्व' इत्यादिको अपनाते । श्रावकाचार वर्णित परम्पराको ही अपनाया है। इन और उस हालतमें 'पिटकाध्ययनं सर्व' इस नई बातोंसे प्रतीत होता है कि वादीभसिंह, जिनसेन और कारिकाको जन्म न देते। इससे ज्ञात होता है कि सोमदेव, जिनका समय क्रमशः ईसाकी नवमी और वादीभसिंह न्यायमञ्जरीकारके उत्तरवर्ती विद्वान नहीं दशमी शताब्दी है, पश्चाद्वर्ती नहीं हैं-पूर्ववर्ती हैं। हैं। न्यायमञ्जरीकारका समय ई० ८४० माना जाता .. ३.. न्यायमञ्जरीकार जयन्तभट्टने कुमारिलकी है । अतः वादीभसिंह इससे पहलेके हैं। .. मीमांसाश्लोकवार्तिकगत 'वेदस्याध्ययनं सर्व' इस, वेद- ४. प्रा. विद्यानन्दने आप्तपरीक्षामें जगत्कर्तृत्व पौरुषेयताको सिद्ध करनेके लिये उपस्थित की का खण्डन करते हुए ईश्वरको शरीरी अथवा गई, अनुमान-कारिकाका न्यायमञ्जरीमें सम्भवतः सर्व अशरीरी माननेमें दूषण दिये हैं और विस्तृत मीमांसा प्रथम भारताध्यनं सर्वं' इस रूपसे खण्डन किया है, की है। उसका कुछ अंश टीका सहितं नीचे दिया जिसका अनुसरण उत्तरवर्तो प्रभाचन्द्र', अभयदेव२, जाता हैदेवसूरि', प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्य' प्रभृति 'महेश्वरस्याशरीरस्य स्वदेहनिर्माणानुपपत्त । तथा हिताकिंकोंने किया है। न्यायमञ्जरीकारका वह खण्डन देहान्तराद्विना तावत्स्वदेहे जनयद्यदि । इस प्रकार है ' तदा प्रकृतकार्येऽपि देहाधानमनर्थकम् ॥१८॥ - भारतेऽप्येवमभिधातुं शक्यत्वात्'. - देहान्तरात्स्वदेहस्य विधाने चानवस्थितिः। भारताध्ययनं सर्व गुर्वध्ययनपूर्वकं । तथा च प्रकृतं कार्य कुर्यादीशो न जातुचित् ॥१६॥ भारताध्ययनवाच्यत्वादिदानीन्तनभारताध्ययनवदिति ॥ यथैव हि प्रकृतकार्यजननायापूर्व शरीरमीश्वरो निष्पा -न्यायमं० प्र०२१४। दयति तथैव तच्छरीरनिष्पादनायापूर्व शरीरान्तरं निष्पापरन्तु वादीभसिंहने स्याद्वादसिद्धिमें कुमारिलको दयेदिति कथमनवस्था विनिवार्येत ? उक्त कारिकाकै खण्डनके लिये अन्य विद्वानोंकी तरह. यथाऽनीशः स्वदेहस्य कर्ता देहान्तरान्मतः । न्यायमञ्जरीकारका अनुगमन नहीं किया । अपितु पूर्वस्मादित्यनादित्वानानवस्था प्रसज्यते ॥२१॥ स्वरचित एक भिन्न कारिकाद्वारा उसका निरसन किया तथेशस्यापि पूर्वस्माइ हाइ हान्तरोद्भवात् । है जो निम्न प्रकार है: नानवस्थेति यो ब यात्तस्याऽनीशत्वमीशितुः ॥२२॥ पिटकाध्ययनं सर्व तदध्ययनपूर्वकम । अनीशः कर्मदेहेनानादिसन्तानवर्तिना । तदध्ययनवाच्यत्वादधुनेव भवेदिति ॥ .. यथैव हि सकर्माणस्तद्वन्न कथमीश्वरः ।।२३॥ -स्या. १०-३८२। यही कथन वादीभसिंहने स्याद्वादसिद्धिमें सिर्फ इसके अतिरिक्त वादीभसिंहने कोई पाँच जगह ढाई कारिकाओं में किया है और जिसका पल्लवन एवं और भी इसी स्याद्वादसिद्धिमें 'पिटक'का ही उल्लेख १ अष्टशती और अष्टसहस्री (पृ. २३७) में अकलङ्कदेव १ देखो, न्यायकुमुद पृ. ७३१, प्रमेयक. पृ. ३६६ ।। तथा उनके अनुगामी विद्यानन्दने भी इसी (पिटकत्रय) २ देखो, सम्मति टी. पृ.४१।३ देखो, स्या. र. पृ. ६३४। का उल्लेख किया है। ४ देखो, प्रमेयरत्न. पृ. १३७ । २ देखो, न्यायकु. द्वि भा. प्र. पृ. १६। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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