________________
२९६ ]
जिनेश्वरः !
(ख) श्रियः पतिः पुष्यतु वः समीहितं त्रिलोकरक्षारितो यदीयपादाम्बुजभक्तिशीकरः सुरासुराधीशपदाय
अनेकान्त.
जायते ॥ - गद्यचिं० पृ० १ । यही प्रस्तुत स्याद्वादसिद्धि के मङ्गलाचरण में कहा गया है(ग) नमः श्रीवर्द्धमानाय (?) स्वामिने विश्ववेदिने ।
नित्यानन्द-स्वभावाय भक्त - सारूप्य - दायिने ॥१-१॥ (२) जिस प्रकार क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्ता - मणिके प्रत्येक लम्बके अन्त में समाप्ति-पुष्पिकावाक्य दिये हैं वैसे ही स्याद्वादसिद्धिके प्रकरणान्तमें वे दिये हैं; यथा
।
(क) ‘इति श्रीमद्वादीभसिंहसूरिविरचिते क्षत्रचूडासरस्वतीम्भो नाम प्रथमो लम्बः । - क्षत्रचूडा (ख) इति श्रीमद्वादीभ सिंहसूरिविरचिते गद्य चिन्तामणौ सरस्वतीलम्भो नाम प्रथमो लम्बः ।' -गद्य चिन्तामणि (ग) ' इति श्रीमद्वादीभ सिंहसूरिविरचितायां स्याद्वादसिद्धौ चार्वाकं प्रति जीवसिद्धि । स्याद्वादसिद्धि । (३) जिस तरह क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्ता - मणिमें यत्र क्वचित् नीति, तर्क और सिद्धान्त की पुट उपलब्ध होती है उसी तरह प्रायः स्याद्वादसिद्धिमें वह उपलब्ध होती है । यथा(क) अतर्कितमिदं वृत्त ं तर्करूढं हि निश्वलम् ||१-४२॥ `इत्यूहेन विरक्तोऽभूद्गत्यधीनं हि मानसम् ।।१-६५ ॥ - क्षत्र चूडामणि ।
:
(ख) ' ततो हि सुधियः संसारमुपेक्षन्ते ।' - गद्य चिन्तामणि पृ० ७८ । ' एवं परगतिविरोधिन्या :- " "चार्वाकमत सब्रह्मचारिण्या राज्यश्रिया परिगृहीताः क्षितिपतिसुताः नैयायिकनिर्दिष्टनिर्वाणपदप्रतिष्ठिता इव कापिलकल्पित पुरुषा इव "प्रकृतिविकारं वचं पादयन्ति ।'
- द्यचि० ० ६६ | 'यतोऽभ्युदयनि यससिद्धिः स धर्मः । स च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकः । अधर्मस्तु तद्विपरीतः ।' -गद्य० पृ० २४३ ।
Jain Education International
[ वर्ष
(ग) तदुपायं ततो वच्ये न हि कार्यमहेतुकम् ॥१-२॥ न वास्तवतः कार्यं कल्पिताग्नेश्च दाहवत् ॥२-४८॥ न हि स्वान्यार्तिकृत्वं स्याद्विरागे विश्ववेदिनि ॥ ७-३०७॥ सत्येवात्मनि धर्मे च सौख्योपाये सुखार्थिभिः । धर्म एव सदा कार्यो न हि कार्यमकारणे ॥१-२४||
For Personal & Private Use Only
!
- स्याद्वाद० ।
इन प्रमाणों एवं तुलनात्मक उद्धारणोंपरसे हम अनुमान कर सकते हैं कि क्षत्रचूडामणि तथा गद्यचिन्तामणिके कर्ता वादीभसिंहसूर और स्याद्वाद - सिद्धिके कर्ता वादीभसिंहसूरि दोनों अभिन्न हैं - एक ही विद्वानकी ये तीनों कृतियाँ हैं । इन कृतियोंसे उनकी उत्कृष्ट कवि, उत्कृष्ट वादी और उत्कृष्ट दार्शनिककी ख्याति और प्रसिद्धि हमें यथार्थ जँच जाती है। द्वितीय वादीभसिंहकी भी जो इसी प्रकार - की ख्याति और प्रसिद्धि शिलालेखों में पाई जाती है। और जिससे विद्वानोंको यह भ्रम हो जाता है कि वे दोनों एक हैं वह मुझे प्रथम वादीभसिंहकी छाया (कृति) जान पड़ती है। इस प्रकार के प्रयत्नके जैनसाहित्य में अनेक उदाहरण मिलते हैं । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आदि महान् दार्शनिक प्रन्थोंर्ता प्रसिद्धि है वैसी ही ख्याति और प्रसिद्धि ईसाकी विद्यानन्दकी जैन साहित्यमें जो भारी ख्याति और १६वीं शताब्दीमें हुए एक दूसरे विद्यानन्दकी भत्त्यादिमहाशास्त्र में वर्णित मिलती है और जिससे हुम्बु शिलालेखों और वर्द्धमानमुनीन्द्रके 'दशविद्वानोंको इन दोनोंके ऐक्यमें भ्रम हुआ है, जिसका निराकरण हमने विद्यानन्दकी 'आप्त-परीक्षा' की विस्तृत प्रस्तावना में किया हैं। हो सकता है कि प्रथम नामवाले विद्वान्की तरह उसी नामवाले दूसरे विद्वान् भी प्रभावशाली रहे हों । पर इससे दोनोंका ऐक्य सिद्ध नहीं होता । फिर एक बाधा यह भी है कि वीं, हवीं शताब्दीसे १२वीं शताब्दी तक एक ही विद्वानका सद्भाव कैसे सम्भव हो सकता है ? अतः विभिन्न कालीन दो वादीभसिंहोंका अस्तित्व मानना ही पड़ेगा । अब नीचे इनके समयपर विचार किया जाता है।
www.jainelibrary.org