Book Title: Anekant 1948 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 7
________________ वादीभसिंहमूरिकी एक अधूरी अपूर्व कृति स्याहादसिद्धि (लेखक-न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी, कोठिया) गत वर्ष श्रीयुत् पं० के० भुजबलीजी मूडबिद्रीकी गम्भीर होती है। पर इस कृतिकी भाषा अत्यन्त, प्रसन्न कृपासे हमें वादीभसिंहसूरिकी एक कृति प्राप्त हुई थी, विशद और बिना किसी विशेष कठिनाईके अर्थबोध जिसका नाम है 'स्याद्वादसिद्धि' और जिसके लिये हम करानेवाली है । ग्रन्थको आप सहजभावसे पढ़ते उनके आभारी हैं। . जाइये, अर्थबोध होता जायगा । हाँ, कुछेक स्थल यह जैनदर्शनका एक महत्वपूर्ण एवं उच्चकोटिका ऐसे जरूर हैं जहाँ पाठकको अपना दिमाग लगाना अपूर्व ग्रन्थरत्न है। सुप्रसिद्ध जैनतार्किक भट्टाकलङ्क- पड़ता है और जिससे ग्रन्थकी प्रौढता, विशिष्टता एवं देवके न्यायविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह, लघीयत्रय आदि- अपूर्वताका भी कुछ परिचय मिल जाता है। भाषाकी तरह यह कारिकात्मक प्रकरण-ग्रन्थ है। दुःख है के सुन्दर और सरल पद-वाक्योंके प्रयोगोंसे समूचे कि विद्यानन्दकी 'सत्यशासनपरीक्षा' और हेमचन्द्र- ग्रन्थकी रचना भी प्रशस्त एवं हृद्य है। चूँ न्थकार की 'प्रमाणमीमांसा' की तरह यह कृति भी अधूरी ही उत्कृष्ट कोटिके दार्शनिक और वाग्मीके अतिरिक्त उच्चउपलब्ध है। मालूम नहीं, यह अपने पूरे रूपमें और कोटिके कवि भी थे और इस लिये उनकी यह रचना . किसी शास्त्रभण्डारमें मौजूद है या नहीं । अथवा, कवित्व-कलासे परिपूर्ण है । यह ग्रन्थकारकी स्वतन्त्र यह ग्रन्थकारको अन्तिम रचना है, जिसे वे स्वर्गवास पद्यात्मक रचना है-किसी गद्य या पद्यरूप मूलकी होजानेके कारण पूरी नहीं कर सके । फिर भी यह व्याख्यात्मक रचना नहीं है। इस प्रकारकी रचना प्रसन्नताकी बात है कि उपलब्ध रचनामें १३ प्रकरण रचनेकी प्रेरणा उन्हें अकलङ्कदेवके न्यायविनिपूरे और १४वाँ प्रकरण अपूर्ण (बहुभाग), इस तरह श्चयादि और शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रहादिसे मिली लगभग १४ प्रकरण पाये जाते हैं और इन सब जान पड़ती है । बौद्धदर्शनमें धर्मकीर्ति (ई० ६२५)की प्रकरणोंमें अकलङ्कदेवके न्यायविनिश्चयसे, जिसकी सन्तानान्तरसिद्धि, कल्याणरक्षित (ई. ७००)की कारिकाओंका प्रमाण ४८० है, २१ कारिकाएँ अधिक बाह्यार्थसिद्धि, धर्मोत्तर (ई० ७२५)की परलोकसिद्धि अर्थात् ५०१ जितनी कारिकाएँ सन्निबद्ध हैं। इससे तथा क्षणभङ्गसिद्धि, और शङ्करानन्द (ई० ८००) इस ग्रन्थकी महत्ता और विशालता जानी जा सकती की अपोहसिद्धि, प्रतिबन्धसिद्धि जैसे सिद्धथन्त है। यदि यह अपने पूर्णरूप में होता तो कितना विशाल नामवाले ग्रन्थ रचे गये हैं। और इनसे भी पहले होता, यह कल्पना ही बड़ी सुखद प्रतीत होती है। स्वामी समन्तभद्रकी जीवसिद्धि रची गई है। दुर्भाग्यसे यह अभी तक विद्वत्संसारके सामने नहीं संभवतः ग्रन्थकारने अपनी 'स्याद्वादसिद्धि' भी उसी आ सका और इसलिये अप्रकाशित एवं अपरिचित तरह सिद्धयन्त नामसे रची है। . दशामें पड़ा चला आ रहा है। ग्रन्थका मङ्गलाचरण और उद्देश्य ग्रन्थकी भाषा और रचना शैली ग्रन्थको प्रारम्भ करनेके पहले ग्रन्थकारने अपनी यद्यपि दार्शनिक प्रन्थोंकी भाषा प्रायः दुरूह और पूर्वपरम्परानुसार एक कारिकाद्वारा ग्रन्थका मङ्गला For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education Interational

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