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- अनेकान्त
[माध, वीर निर्वाण सं० २४१६
पूर्वकालीन और तत्कालीन स्थिति धर्मसेन, एवं जिनभद्र गणिक्षमाश्रवण आदि कुछेक .... भगवान् महावीर स्वामी, सुधर्मा स्वामी और प्राचार्यों द्वारा रचित कुछ ग्रंथ पाये जाते हैं। किन्तु नम्ब स्वामीके निर्वाणकालके पश्चात् ही जैन आचार स्थलिभद्र आदि जो अनेक गंभीर विद्वान् श्राचार्य वीरऔर जैन साहित्य-धारामें परिवर्तन होना प्रारंभ हो संवत् की इन त्रयोदश शताब्दियोंमें हुए हैं। उनकी गया था। जैन-पारिभाषिक भाषामें कहें तो केवल ज्ञान कृतियोंका कोई पता नहीं चलता है । इन महापुरुषोंने का सर्वथा अभाव हो गया था, और साधुओंमें भी साहित्यकी रचना तो अवश्य की होगी ही; क्योंकि आचार-विषयको लेकर संघर्ष प्रारंभ हो गया था; जैन-साधुनोंका जीवन निवृत्तिमय होनेसे-साँसारिक जो कि कुछ ही समय बाद आगे चलकर श्वेताम्बर- ऊंझटोंका अभाव होनेसे-सारा जीवन साहित्य सेवा दिगम्बर रूपमें फूट पड़ा। वीरसंवत्की दूसरी शताब्दि- और ज्ञानाराधनमें ही लगा रहता था। अतः जैन साके मध्यमें अर्थात् वीरात् १५६ वर्ष बाद ही भद्रबाहु हित्य वीर-निर्वाणके पश्चात् सैकड़ों विद्वान जैनसाधुओं स्वामी-जिनका कि स्वर्गवास संवत् वीरात् १७० माना द्वारा विपुलमात्रामें रचा तो अवश्य गया है, किन्तु वह जाता है- अंतिम पूर्ण श्रुतकेवली हुए । श्रुत-केवल जैनेतर विद्वेषियों द्वारा और मुस्लिम युगकी राज्य ज्ञान भी अर्थात् १४ पूर्वोका ज्ञान भी एवं अन्य प्रा- क्रान्तियों द्वारा नष्ट कर दिया गया है-ऐसा निश्चगम ज्ञान भी भद्रबाहुस्वामीके पश्चात् क्रमशः धीरे धीरे यात्मकरूपसे प्रतीत होता है। घटता गया, और इस प्रकार वीरकी नववीं शताब्दि.. बौद्धधर्म और जैनधर्मने वैदिक एकान्त मान्यताओं तकके कालमें याने देवर्द्धि क्षमाश्रमणके काल तक अति पर गहरा प्रहार किया है और बौद्ध-दर्शनकी विचार-प्रस्वल्पमात्रा में ही ज्ञानका अंश अवशिष्ट रह गया था। णालिसे तो ज्ञात होता है कि बौद्ध-दार्शनिकोंने जैनधर्म हरिभद्र सूरिका काल वीरकी १३वीं शताब्दि है। इन औिर वैदिकधर्मको भारतसे समूल नष्ट करनेका मानो १३०० वर्षोंका साहित्य वर्तमानमें उपलब्ध संपूर्ण जैन . नश्चय सा कर लिया था, और विभिन्न प्रणालियों वाङ्मयकी तुलनामें अष्टमांशके बराबर ही होगा । यह द्वारा ऐसा गंभीर धक्का देनेका प्रयत्न किया था कि कथन परिमाणकी अपेक्षासे समझना चाहिये, न कि जिससे ये दोनों धर्म केवल नामशेषमात्र अवस्थामें रह महत्वकी दृष्टिसे । पूर्व शताब्दियोंका साहित्य पश्चात् की जायें। इस उद्देश्यकी पूर्तिके लिये बौद्ध साधु और शताब्दियोंकी अपेक्षासे बहुमहत्त्वशाली है, इसमें तो. बौद्ध-अनुयायी जनसाधारणकी मंत्र, तंत्र और औषधि कहना ही क्या है।
. .. आदि एवं धनादिकी सहायता देकर हर प्रकारसे सेवाइन प्रथम तेरह शताब्दियोंके साहित्यमें से वर्तमान शुश्रुषा करने लगे, और इस तरह जनसाधारणको में उपलब्ध कुछ मूल पागम, भद्रबाहु स्वामीकृत कुछ उपदेश एवं लोभ आदि अनेक क्रियाओं द्वारा बौद्धधर्म नियुक्तियाँ,उमास्वामी कृत तत्त्वार्थसूत्र श्रादि ग्रंथ, पाद- की ओर आकर्षित करने लगे। अशोक श्रादि जैसे लिप्तसूरिकी कुछ सारांशरूप कृतियाँ, सिद्धसेन दिवाकर समर्थ सम्राटोंको बौद्ध बना लिया और इस तरह भूमि की रचनाएँ, सिंह क्षमाश्रमण सूरिका नयचक्रवाल, तैयार कर वैदिक धर्म एवं जैनधर्म को हानि पहुँचाने और शिवशर्मसूरि, चंद्रषि, कालिकाचार्य, संघदास, लगे। वैदिक-साहित्य और जैन. साहित्यको भी नष्ट