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तत्वार्थाधिगमभाग्य और पकलंक
[ले० - श्री० प्रोफेसर जगदीशचन्द्र, एम. ए. ]
ग्रा जसे सात-आठ वर्ष पहलेकी बात है जब मैं. मुद्दे पेश करना चाहते हैं, जिनसे जान पड़ता है
अकलंक के राजवार्त्तिक लिखते समय उनके सामने उमास्वातिका तत्त्वार्थाधिगम माध्य मौजूद था। और उन्होंने अपनी वार्त्तिकमें उसका उपयोग किया है:
(१) (क) 'बन्धेऽधिको पारिणामिकौ च' दिगम्बरीय पाठ है । इसके स्थान में तत्त्वार्थ भाष्य- सम्मत पाठ है 'बन्धे समाधिको पारिणामिकौ । उक्त पाठ राजवार्त्तिककार के सामने मौजूद था । कलंक देव लिखते हैं:“समाधिकाविश्य परेषाँ पाठः - बंधे समाधिकौ पारिणामिकावित्यपरे सूत्रं पठति ।"
'बनारस हिन्दु युनिवर्सिटी में एम. ए. में पढ़ता था । उस समय श्रीमान् पं० सुखलालजीका उमास्वाति और तत्त्वार्थाधिगम भाष्य के सम्बन्ध में अनेकान्त ( प्रथमवर्ष कि०६ से १२) में एक लेख निकला, जिसे पढ़कर मनमें नाना विचार-धाराओं का उद्भव हुआ और इस विषय में विशेष अध्ययन करनेकी इच्छा बलवती हो उठी । संयोगवश अगले साल ही मुझे बहैसियत एक रिसर्च स्कालर के शाँतिनिकेतन जाना पड़ा, और वहाँ मुनि जिनविजयजी प्रोत्साहनसे मैंने तस्वार्थराजवार्त्ति कके सम्पादनका काम हाथमें ले लिया । इस ग्रंथके प्रकाशन की योजना सिंघी सीरिज में की गई। मैं पहलेसे ही राजवार्त्तिकपर अत्यन्त मुग्ध था । भाँडारकर इन्स्टिट्यूट पूना से राजवार्त्तिककी कुछ हस्तलिखित प्रतियाँ मँगाई गई और मैंने अपना काम शुरू कर दिया। दुर्भाग्यवश राजवार्त्तिक के नूतन और शुद्ध सं"स्करण के निकालने का कार्य तो पूर्ण न हो सका, लेकिन इसके बहाने मुझे कुछ लिखनेके लिये मनोरंजक सामग्री अवश्य मिल गई ।
(ख) दिगम्बर-परम्परा में 'द्रव्याणि' 'जीवाश्च' दोनों सूत्र अलग अलग हैं, लेकिन श्वेताम्बर-परम्परामें दोनों सूत्रों के स्थानपर एक सूत्र है - 'द्रव्याणि जीवाश्च' । इसपर राजवार्त्तिककार लिखते हैं- "एकयोग इति चेन्न जीवानामेव प्रसंगात् – स्यान्मतं एक एव योगः कत्तव्यः द्रव्याणि जीवा इत्येवं च शब्दाकरणात् लध्विरिति, तन्न, किं कारणं जीवानामेव प्रसंगात् । "
वर्त्तमानका मुद्रित राजवार्त्तिक कितना अशुद्ध है, और इतना शुद्ध होने पर भी कितने मज़ेसे दिगम्बर पाठशालाओंमें उसका अध्ययन-अध्यापन हो रहा है, इसकी कल्पना मुझे तब पहली बार हुई । बहुतसे स्थल तो ऐसे हैं जहाँ वार्त्तिककी टीका बन गई है और टीका वार्त्तिक बन गई है। खैर, इसके लिये तो स्वतंत्र लेख की ही श्रावश्यकता है। हम इस लेख में सिर्फ़ कुछ ऐसे
(ग) 'अवग्रहेहावायधारणाः' दिगम्बर-परम्पराका सूत्र है । तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के सूत्रोंमें 'वाय' के स्थान में 'पाय' है । इस पर कलंकदेव लिखते हैं"श्राह किमयमपाय उतावाय इत्युभयथा न दोषोऽन्यतरवचनेऽन्यतरस्यार्थगृहीतत्वात् ।” यहां अवाय और पाय दोनोंही पाठोंको कलंकने निर्दोष बताया है ।
(घ) 'अल्पारंभपरिग्रहत्वं मानुषस्य ' 'स्वभावमार्दवं च' ये दो सूत्र दिगम्बर-परम्पराके हैं । इनके स्थनामें श्वेताम्बर - परम्परा में एक सूत्र है - 'अल्पारंभ