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वर्ष ३, किरण ४ ]
परिग्रहस्व' स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य' । इस पर शंका करते हुए राजनार्त्तिककार कहते हैं- "एकयोगीकरणमिति चेन्नोंत्तरापेचत्वातर—यान्मतं एको योगो कर्तव्यः - अल्पारंभपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवं मानुषस्येति ? तन, किं कारणं उत्तरापेक्षत्वात् ।"
इत्यादि रूप में राजवार्त्तिक में तत्त्वार्थ सूत्रोंके पाठभेदका अनेक स्थलों पर उल्लेख किया गया है । इससे यह बात स्पष्ट है कि उनके सामने कोई दूसरा पाठ अवश्य था, जिसे अकलंकने स्वीकार नहीं किया ।
(२) यह शंका हो सकती है कि सूत्रपाठ में भेद होने का जो कलंकने उल्लेख किया है, उससे यही सिद्ध होता है कि उनके सामने कोई दूसरा सूत्रपाठ
(क) अपि च तंत्रांतरीया असंख्येयेषु लोकधावसंख्येया पृथिवीप्रस्तारा इत्यव्यवसिताः । तत्प्रतिषेधार्थं च सप्तग्रहणमिति ।"
- तत्त्वार्थ० भाष्य (३-१)
गोम्मटसार एक संग्रह ग्रंथ है
(ख) "तत्रात्रवैर्यथोक्तैर्नारिकसंवर्तनी - यैः कर्मभिरसंज्ञिनः प्रथमायामुत्पद्यन्ते । सरीसृपा द्वयोरादितः प्रथमद्वितीययोः एवं पक्षिणस्तिसृषु । सिंहाश्चतसृषु । उरगाः पंचसु । स्त्रियः षट्सु । मत्स्य मनुष्याः सप्तस्विति । न तु देवा नारका वा नरकेधूपपत्ति प्राप्नुवंति ।"
- त० भाष्य ( ३-८.
था, जिसे दिगम्बर लोग न मानते थे, लेकिन इससे यह नहीं कहा जा सकता कि वह सूत्रपाठ तत्त्वार्थाधिगम-भाष्यका ही था । संभव है वह अन्य कोई दूसरा ही पाठ रहा हो
यह निर्विवाद है कि कलंक के सामने पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि मौजूद थी । तथा उन्होंने सर्वार्थसिद्धिको सामने रखकर हीं राजवार्त्तिकको लिखा है । निम्न लिखित तुलनात्मक उदाहरणोंसे हम यह बताना चाहते हैं कि राजवार्तिककार के समक्ष सर्वार्थसिद्धि तो थी ही, लेकिन उमास्वाति के तत्त्वार्थाधिगमभाष्यका भी उन्होंने काफ़ी उपयोग किया है:
सर्वार्थसिद्धि में इस
स्थान पर असंख्य लोकधातु श्रादिकी कोई चर्चा नहीं की
गई । यहाँ सिर्फ़
इतना ही कहा गया है "सप्तग्रहणं सं
ख्यान्तरनिवृत्यर्थं ।" - सर्वार्थ० (३१)
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सर्वार्थसिद्धि में इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा गया है।
"संति हि केचित्तंांतरीया अनंतेषु लोकधातुष्वनंताः ध्यवसिताः ।" - राजवार्तिक ( ३- १)
पृथिवीप्रस्तारा इत्य
"थोत्पादः क केषामित्यत्रोच्यते-' प्रथमायामसंज्ञिन उत्पद्यते । प्रथमाद्वितीययोः सरीसृपाः । तिसृषु पक्षिणः । चतसृषूरगाः । पंचसु सिहाः । षट्सु स्त्रियः । सप्तसु मत्स्य मनुष्याः । देवनारका वा नरकेषु उत्पद्यते ।”
न च
- राज० ( ३-६ )