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वर्ष ३, किरण ४ ]
लिये पाँच नरकों तक उत्पत्तिका विधान है, तब राजवार्तिकका उरगोंके लिये चार नरकों तक और सिंहोंके लिये पाँच नरकों तककी उत्पत्तिका विधान है । यह मतभेद एक दूसरे के अनुकरणको सूचित नहीं करता, न पाठ-भेदकी किसी शुद्धि पर अवलम्बित है; बल्कि अपने अपने सम्प्रदाय के सिद्धान्त-भेदको लिये हुए हैं । राजवार्तिकका नरकों में जीवों के उत्पादादि सम्बन्धी कथन 'तिलोयपत्ती' आदि प्राचीन दिगम्बर ग्रन्थोंके आधार पर अवलम्बित है * ।
यहाँ पर एक बात और भी जान लेने की है और • वह यह है कि श्री पूज्यपाद श्राचार्य सर्वार्थसिद्धि में, प्रथम अध्याय के १६ वें सूत्रकी व्याख्या में 'क्षिप्रानि: सृत' के स्थानपर 'क्षिप्रनिःसृत' पाठ भेदका उल्लेख करते हुए लिखते हैं
"अपरेषां चिप्रनिःसृत इति पाठः । त एवं वर्णयन्ति – श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दमवगृह्यमाणं मयूरस्य वा कुर trafa प्रतिपद्यते । "
जिस पाठभेदका यहाँ 'अपरेषां' पदके प्रयोगके साथ उल्लेख किया गया है वह 'स्वोपज्ञ' कहे जानेवाले उक्त तत्त्वार्थभाष्य में नहीं है, और इससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि पूज्यपाद के सामने दूसरोंका कोई ऐसा सूत्रपाठ भी मौजूद था जो वर्तमान एवं प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य के सूत्रपाठसे भिन्न था। ऐसा ही कोई दूसरा सूत्रपाठ अकलंक देवके सामने उपस्थित जान पड़ता है, जिसमें
* देखो जैनसिद्धान्तभास्करके ५ वें भागकी तीसरी किरण में प्रकाशित 'तिलोयपण्णत्ती' का नरक विषयक प्रकरण, (गाथा २८१, २८६ आदि ) जिसमें वह विषय बहुत कुछ वर्णित है जो लेखीय नं० २ के अनेक भागों में उल्लेखित राजवार्तिकके वाक्यों में पाया जाता है।
गोम्मटसार एक संग्रह ग्रंथ है
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"अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवं मानुषस्य " ऐसा सूत्रपाठ होगा - 'स्वभावमादेवं' की जगह 'स्वभावमार्दवार्जवं च ' नहीं । इसी तरह "बन्धे समाधिकौ पारिणाfast" सूत्रपाठ भी होगा, जिसके "समाधिकौ" पदकी अालोचना करते हुए और उसे 'आर्षविरोधि वचन' होनेसे विद्वानोंके द्वारा अग्राह्य बतलाते हुए 'अपरेषां पाठः' लिखा है -- यह प्रकट किया है कि दूसरे ऐसा सूत्रपाठ मानते हैं । यहाँ 'अपरेषां' पदका वैसा ही प्रयोग हैं जैसा कि पूज्यपाद आचार्यने ऊपर उद्धृत किये हुए पाठभेदके साथमें किया है । परन्तु इस 'समाधिको ' पाठभेदका सर्वार्थसिद्धिमें कोई उल्लेख नहीं, और इससे ऐसा ध्वनित होता है कि सर्वार्थसिद्धिकार श्राचार्य पूज्यपाद के सामने प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य अथवा तत्त्वार्थभाष्यका वर्तमानरूप उपस्थित नहीं था, जिसका 'स्वोपज्ञ भाष्य' होनेकी हालत में उपस्थित होना बहुत कुछ स्वाभाविक था, और न वह सूत्रपाठ ही उपस्थित था जो कलंक के सामने मौजूद था और जिसके उक्त सूत्रपाठको वे 'श्रार्षविरोधी' तक लिखते हैं, अन्यथा यह संभव मालूम नहीं होता कि जो श्राचार्य एकमात्रा तक के साधारण पाठभेदका तो उल्लेख करें वे ऐसे विवादापन्न पाठभेदको बिल्कुल ही छोड़ जावें ।
सिद्धसेन गणीकी टीकामें अनेक ऐसे सूत्रपाठोंका उल्लेख मिलता है जो न तो प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य में पाये जाते हैं और न वर्तमान दिगम्बरीय अथवा सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ में ही उपलब्ध होते हैं। उदाहरण के लिये “कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि” सूत्रको लीजिये, सिद्धसेन लिखते हैं कि इस सूत्र में प्रयुक्त हुए 'मनुष्यादीनाम्' पदको दूसरे ( परे ) लोग 'श्रनार्ष' बतलाते हैं और साथ ही यह भी लिखते हैं कि कुछ अन्य जन जो 'मनुष्यादीनाम्' पदको तो स्वीकार करते