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अनेकान्त
[माघ, वीर निर्वाण सं० २०६६
हैं वे इस सूत्रके अनन्तर "अतीन्द्रियाः केवलिनः" यह है और फिर इसकी व्याख्यामें लिखा है-"अद्धा शब्दो एक नया ही सूत्रपाठ रखते हैं * । यह सब कथन निपातः कालवाची स वषयमाणलक्षणः तस्य प्रदेशवर्तमानके दिगम्बर श्वेताम्बर सूत्र पाठोंके साथ प्रतिषेधार्थमिह कायग्रहणं क्रियते ।" इससे स्पष्ट है कि सम्बद्ध नहीं है। इससे स्पष्ट है कि पहले तत्त्वार्थसूत्रके उक्त वार्तिक सर्वार्थसिद्धि के शब्दोंपर ही अपना आधार अनेक सूत्रपाठ प्रचलित थे और वे अनेक प्राचार्य रखता है,और इसलिये यह कहना कि भाष्यकी 'श्रद्धापरम्परात्रोंसे सम्बन्ध रखते थे । छोटी-बड़ी टीकाएँ समयप्रतिषेधार्थ च' इस पंक्तिको उक्त वार्तिक बनाया भी तत्त्वार्थसूत्रपर कितनी ही लिखी गई थीं। जिनमेंसे गया है कुछ संगत मालूम नहीं होता । ऊपरके संपूर्ण बहुतसी लुप्त हो चुकी हैं और वे अनेक सूत्रोंके विवेचनकी रोशनीमें वह और भी असंगत जान पड़ता है। पाठभेदोंको लिये हुए थीं।
अब रही नं० ४ में दिये हुए प्रोफेसर साहबके दो ऐसी हालतमें लेखके नं० ३ में प्रोफेसर साहबने मुद्दों ( 'क-ग' भागों) की बात । 'उक्तं हि अर्हस्प्रवचने उक्त शंकाका निरसन होना बतलाते हुए, जो यह "द्रव्याश्रया निगुणा गुणा" इति' यह मुद्रित राजवातिनतीजा निकाला है कि "अकलंकके सामने कोई दूसरा कका पाठ ज़रूर है परन्तु इसमें उल्लेखित 'अर्हत्प्रवचन' सूत्रपाठ नहीं था, बल्कि उनके सामने स्वयं तत्त्वार्थभाष्य से तत्वार्थ भाष्यका ही अभिप्राय है ऐसा लेखकमहोमौजद था' वह समुचित प्रतीत नहीं होता । इसी तरह दयने जो घोषित किया है वह कहाँसे और कैसे फलित भाष्यकी पंक्तिको उठाकर वार्तिक बनाने श्रादिकी जो होता है, यह कुछ समझ नहीं पाता । इस वाक्यमें बात कही गई है वह भी कुछ ठीक मालूम नहीं होती। गुणोंके लक्षणको लिये हुए जिस सूत्रका उल्लेख है वह अकलंकने अपने राजवातिकमें पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थाधिगमसूत्रके पाँचवें अध्यायका ४०वाँ सूत्र है, . का प्रायः अनुसरण किया है। सर्वार्थसिद्धि में पाँचवें और इसलिये प्रकट रूपमें 'अर्हत्प्रवचन' का अभिप्राय अध्यायके प्रथम सूत्रकी व्याख्या करते हुए लिखा है- यहाँ उमास्वातिके मूल तत्त्वार्थाधिगमसूत्रका ही जान "काल. वचयते, तस्य प्रदेशप्रतिषेधार्थमिह कायग्रहणम्।” पड़ता है-तत्त्वार्थभाष्यका नहीं। सिद्धसेनगणीका इसी बातको व्यक्त करते हुए तथा काल के लिये उसके जो वाक्य प्रमाणमें उद्धृत किया गया है उसमें भी पर्याय नाम 'श्रद्धा' शब्दका प्रयोग करते हुए राजवा- 'अर्हत्प्रवचन' यह विशेषण प्रायः तत्वार्थाधिगमसूत्रके र्तिकमें एक वार्तिक "श्रद्धाप्रदेशप्रतिषेधार्थ च” दिया लिये प्रयुक्त हुआ है-मात्र उसके भाष्य के लिये नहीं।
* "अपरेऽतिविसंस्थलमिदमालोक्य भाष्यं विष- इसके सिवाय, राजवार्तिकमें उक्त वाक्यसे पहले यह ण्णाः सन्तः सूत्रे मनुष्यादिग्रहणमनार्षमिति संगिरन्ते"। वाक्य दिया हुआ है-"अर्हत्प्रवचनहृदयादिषु गुणोइदमन्तरालमुपजीव्यापरे वातकिनः स्वयमुपरभ्य सूत्र- पदेशात् ।" और तत्सम्बन्धी बार्तिकभी इस रूपमें दिया मधीयते-'अतीन्द्रियाः केवलिनः' येषां मनुष्यादीनां है-"गुणाभावा दयुक्तिरिति चेन्नाहत्प्रवचनहृदयादिषु ग्रहणमस्ति सूत्रेऽनन्तरे त एवमाहुः-मनुष्यग्रहणात् गुणोपदेशात् ।" इससे उल्लेखित ग्रन्थका नाम 'हत्प्रवकेवलिनोऽपि पंचेन्द्रियप्रसक्तेः अतस्तदपवादार्थमतीत्ये- चनहृदय' जान पड़ता है, जो उमास्वति-कर्तृ कसे भिन्न न्द्रियाणि केवलिनो वर्तन्त इत्याख्येयम् ।”
कोई दूसरा ही महत्वका ग्रन्थ होगा । बहुत संभव है कि