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वर्ष ३, किरण ४]
हरिभद्रसूरि
करते रहते हैं । अपनी-अपनी तारीफ करके अन्य सदा- परिवर्तन लानेका सफल प्रयास किया और पुनः सुधार चारीका विरोध करते हैं। सब ये नाम धारी साधु नि- मार्गकी नींक डाली । इस दृष्टिसे हरिभद्रसूरिका सायोंको ही उपदेश देते हैं । स्वच्छन्द रूपसे विचरण हित्यक्षेत्र में जो स्थान है; वैसा ही गौरवपूर्ण स्थान करते हैं। अपने भक्तके राई समान गुणको भी मेरु प्राचार-क्षेत्रमें भी समझना चाहिये। समान बतलाते हैं । विभिन्न कारण बतलाकर अनेक प्राचार्य हरिभद्रसूरि दीर्घ तपस्वी भगवान महाउपकरण रखते हैं । घर-घर कथाओंको कहते रहते हैं । वीर स्वामीके श्रद्धालु और स्थिर चित्तवाले 'अनुयायी सभी अपने आपको अहमिंद्र समझते हैं। स्वार्थ पाने थे। यही कारण है कि अपने समयमें जैन प्राचारोंकी पर नम्र हो जाते हैं और स्वार्थ पूरा होते ही ईर्षा रखने ऐसी दशा देखकर उन्हें हार्दिक मनोवेदना हुई । और लग जाते हैं । गृहस्थोंका बहुमान करते हैं। गृहस्थोंको उन्होंने अपने ज्ञानबल एवं चारित्रबल-द्वारा इस क्षेत्र में संयमके मित्र बतलाते हैं । परस्परमें लड़ते रहते हैं और पुनः दृढ़ता स्थापित की। शिष्यों के लिये भी कलह करते हैं।' इस प्रकार प्राचा- भगवान् महावीर स्वामीके उद्देश्यको पूर्ण करने, रविषयक शोचनीय पतनका वर्णन करते हुए अन्तमें उन्नत करने और विकसित करनेमें साधु संस्थाका बहुत प्राचार्य हरिभद्रसूरि कहते हैं, कि-"ये साधु नहीं हैं, ऊँचा स्थान है। इसके महत्व और गौरवको भुलाया किन्तु पेट भरनेवाले पेटु हैं। इनका (साधुओंका) यह नहीं जा सकता है। जैन-धर्म, जैन समाज और जैन कहना कि-"तीर्थकरका वेश पहिनने वाला वन्दनीय साहित्य आज भी जीवित है, इसका मूल कारण अहै" धिक्कार योग्य है, निन्दास्पद है।" प्राचार्यश्रीने धिकाँशमें यह साधु-संस्था ही है। इसकी पवित्रता ऐले साधुओंकी “निर्लज्ज, अमर्याद, क्रूर" श्रादि विशे- और आरोग्यतामें ही जैन संस्कृतिका विकास संनिहित पणोंसे गम्भीर निन्दा की है। ऐसा ही साधु चरित्र- है। किन्तु आजकी साधु-संस्थामें भी पुनः अनेक रोग चित्रण महानिशीथ, शतपदी आदि ग्रन्थों में भी पाया प्रविष्ट हो गये हैं । अतः पुनः ऐसे ही हरिभद्र समान जाता है।
एक महापुरुषकी आवश्यकता है; जोकि महावीर स्वामी ___ भगवान् महावीर स्वामी द्वारा प्रदर्शित प्राचार- के प्राचार क्षेत्रको फिरसे सुदृढ़, स्वस्थ, और आदर्श पद्धति एक आदर्श त्याग वृत्ति और असिधारा सम बना सके । अत्यन्त कठोर एक असाधारण निवृत्तिमय मार्ग है । 'संबोध-प्रकरण' में लिखित और अत्र उद्धृत यह इस मार्गमें सब प्रकार के दुःख, कठिनाइयाँ उपसर्ग चारित्र-पतन तत्कालीन चैत्यवासी संप्रदायके साधुओं एवं परिषह सहन करने पढ़ते हैं। स्वयं भगवान् महा- में पाया जाता था । यह संप्रदाय विक्रम संवत् ४१२ वीर स्वामीने अत्यन्त उग्ररूपसे इसका परिपालन · के आसपासमें उत्पन्न हुआ था; ऐसा धर्मसागर-कृत किया था। उसी श्रादर्श त्याग वृत्तिकी जैन साधुओं पट्टावलीसे ज्ञात होता है । चरित्र-नायकका काल द्वारा ही इस प्रकारको दशा की जाती हुई देखकर प्रा. विक्रम संवत् ७५७ से ८२७ तकका है, अतः मालूम चार्य हरिभद्रसूरिको मार्मिक एवं हार्दिक वेदना हुई। होता है कि संवत् ४१२ से ७५७ तकके कालमें इस प्राचार्यश्रीने विरोध होनेकी दशामेंभी इस स्थितिमें संप्रदायने अपने पैर बहुत मजबूत जमा लिये होंगे।