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अनेकान्त
[माघ, वीरनिर्वाण सं०२४६६
साधु-संस्था पुनः वास्तविक और श्रादर्श मार्गके प्रति मेरा और अमुक कुल मेरा-ऐसा ममत्वभाव रखते श्रद्धामय और भक्तिशील हुई । प्राचार्य हरिभद्रसूरिने हैं। स्त्रियोंका प्रसंग रखते हैं । श्रावकोंको कहते हैं कि अपने 'संबोध-प्रकरण' में तत्कालीन परिस्थितिका मतकार्य ( मतभोज ) के समय जिन-पूजा करो और वर्णन इन शब्दोंमें किया है:--"ये साधु चैत्य और मृतकोंका धन जिनदान में देदो। पैसों के लिये (दक्षिम०में रहते हैं। पूजा आदि क्रियाओं का प्रारम्भ समारम्भ णारूपसे प्राप्त करनेके लिये) अंगे उपांग श्रादि सूत्रोंको करते हैं । स्वतःके लिये देव-द्रव्यका उपयोग करते हैं। श्रावकोंके आगे पढ़ते हैं । शालामें या गृहस्थों के घर पर जिनमन्दिर और शालाओंका निर्माण कराते हैं । ये खाजा आदि पाक पदार्थ तयार करवाते हैं। पतितमुहर्त निकालते हैं। निमित्त बतलाते हैं। इनका चारित्रवाले अपने गुरुत्रों के नामपर उनके दाह-स्थलों (साधुनोंका ) कहना है कि श्रावकोंके पास सूक्ष्म पर स्मारक बनवाते हैं । बलि करते हैं। उनके व्याख्याबातें नहीं कहनी चाहिये। ये भस्म (राख) भी तंत्र ‘नमें स्त्रियाँ उनकी तारीफ करती हैं। केवल स्त्रियोंके । रूपसे देते हैं । ये विविध रंगके सुगंधित और धूपित वस्त्र आगे व्याख्यान देते हैं । साध्वियाँ भी केवल पुरुषोंके पहिनते हैं । स्त्रियों के सामने गाते हैं । साध्वियों द्वारा आगे व्याख्यान देती हैं । भिक्षार्थ घर घर नहीं घूमते लायाहुअा काममें लाते हैं। तीर्थ-स्थानके पंडोंके समान हैं। मंडली में बैठ करके भी भोजन नहीं करते हैं । अधर्मसे धन इकट्ठा करते हैं। दिनमें दो तीन बार संपर्ण रात्रिभर सोते रहते हैं। गुणवानों के प्रति द्वेष खाते हैं। पान आदि वस्तुएँ भी खाते हैं। घी-दूध रखते हैं । क्रय-विक्रय करते हैं । प्रवचनकी श्रोटमें आदिकाभी खूब प्रयोग करते हैं । फल-फूल और सचित्त किया करते हैं । धन देकर छोटे छोटे बालकोंको पानीका भी उपयोग करते हैं। जाति भोजनके समय
शिष्यरूपसे खरीदते हैं । मुग्ध पुरुषोंको ठगते हैं । जिन- . मिष्टान्नको भी ग्रहण कर लेते हैं । श्राहारके लिये खुशा- प्रतिमाओंका क्रय-विक्रय करते हैं। उच्चाटन श्रादि मद करते हैं। पूछने पर भी सत्य धर्मका मार्ग नहीं मंत्रतंत्र भी करते हैं । डोरा धागा करते हैं। शासनबतलाते हैं। प्रातःकाल सूर्योदय होते ही खाते हैं। प्रभावनाकी भोटमें कलह करते हैं । योग्य साधुओंके
विकृति उत्पन्न करनेवाले पदार्थोंका भी बार बार पास जाने के लिये श्रावकोंको निषेध करते हैं । श्राप उपयोग करते हैं । केश-लुंचन भी नहीं करते हैं । श- श्रादि देनेका भय बतलाते हैं। द्रव्य देकर अयोग्य रीरका मैल उतारते हैं । साधु योग्य करणीय शुद्ध चा- शिष्यों को खरीदते हैं । ब्याजका धंधा करते हैं। श्र. रित्रके अनुरूप क्रियाओं को करते हुए भी लज्जित होते योग्य कार्यों में भी शासन-प्रभावना बतलाते हैं । प्रवहैं । अकारण ही कपड़ोंका ढ़ेर रखते हैं। स्वयं पतित चनमें कथन नहीं किये जानेपर भी ऐसे तपकी प्ररूपणा होते हुए भी दूसरोंको प्रायश्चित देते हैं । पडिलेहणा कर उसका महोत्सव करवाते हैं। स्वतः के उपयोगके (प्रतिलेखना) भी नहीं करते हैं । वस्त्र, शैय्या, जूते, लिये वस्त्र, पात्र आदि उपकरण और द्रव्य अपने श्रावाहन, आयुध, और तांबे श्रादिके पात्र रखते हैं। वकोंके घर इकटे करवाते हैं । शास्त्र सुनाकर श्रावकों से स्नान करते हैं। सुगंधित तेलका उपयोग करते हैं। धनकी अाशा रखते हैं । ज्ञानकोशकी वृद्धि के लिये धन श्रृंगार करते हैं । अत्तर फूलेल लगाते हैं। अमुक ग्राम इकट्ठा करते हैं और करवाते हैं । आपसमें सदैव संघ'ष