Book Title: Anekant 1940 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 32
________________ २९५ अनेकान्त [माघ, वीरनिर्वाण सं०२४६६ मालूम नहीं होता किन्तु यह एक संग्रह ग्रन्थ है,जिसका रचना सुसम्बद्ध जान पड़ती है और अपने विषयको उक्त आचार्यने चामुण्डरायके निमित्त संकलन किया पूर्णतया स्पष्ट करती है। ग्रन्थमें प्रतिपादित विषयोंके था । गोम्मटसारके संकलित होने के बाद इसके पठन- लक्षण बहुत अच्छी तरह संकलित किये गये हैं जिनके पाठनका जैनसमाजमें विशेष प्रचार होगया और वह कारण यह ग्रन्थ सभी जिज्ञासुओंके लिये बहुत उपयहाँ तक बढ़ा कि गोम्मटसारको ही सबसे पुराना कर्म योगी होगया है। यद्यपि श्वेताम्बरीय प्राचीन चतुर्थ ग्रन्थ समझा जाने लगा। किन्तु जिन · महा बन्धादि कर्मग्रंथमें भी इसी विषयका संक्षिप्त वर्णन दिया हुआ प्राचीन सिद्धान्त ग्रन्थोंके आधारपर इसकी रचना हुई है परन्तु उसमें जीवकाण्ड जैसा स्पष्ट एवं विस्तृत कथी उनके पठन पाठनादिका बिल्कुल प्रचार बन्द हो थन नहीं और न उसमें इस तरह के सुसम्बद्ध लक्षणोंगया और नतीजा यह हुआ कि वे धवलादि महान् का ही समावेश पाया जाता है । इसी लिये प्रज्ञाचक्षु सिद्धान्त ग्रन्थ केवल नमस्कार करने की चीज़ रह गये। पं०सुखलाल जीने अपनी चतुर्थकर्म ग्रंथकी प्रस्तावनामें इसी कारण इसे ही विशेष अादर प्राप्त हुआ और उन जीवकाण्डको देखने की विशेष प्रेरणा की है । अस्तु । सिद्धान्तग्रन्थोंकी प्राप्ति के अभावमें इन्हें ही मूल सिद्धान्त ___पंचसंग्रह और जीवकाण्ड ग्रन्थ समझा जाने लगा । इसी ग्रन्थके कारण प्राचार्य नेमिचन्द्रकी अधिक ख्याति हुई और उनका यह संक- प्राकृत पंच संग्रहके 'जीवप्ररूपणा' नामके प्रथम लन जैन समाजके लिये विशेष उपयोगी सिद्ध हुआ। अधिकारकी २०६ गाथाओं से गोम्मटसार-जीवकाण्डमें अस्तु, गोम्मटसारकी रचनाके आधार के विषयमें कुछ १२७ गाथाएँ पाई जाती हैं। ये गाथाएँ प्रायः वे हैं विचार करना ही इस लेखका मुख्य विषय है। अतः जिनमें प्राण, पर्याप्ति आदि के विषयोंके लक्षण दिये सबसे पहले उसके जीव काँडके विषय में कुछ विचार गये हैं। इन १२७ गाथाश्रोंमेंसे १०० गाथाएँ तो वे किया जाता है। ही हैं जिन्हें धवलामें आचार्य वीरसेनने उक्तं च रूपसे गोम्मटसारके जीवकाण्डमें जीवोंकी अशुद्ध दिया है और जिनका अनेकान्तकी गत तृतीय किरणमें अवस्थाका वर्णन किया गया है । गाथाओंकी कुल 'अतिप्राचीन प्राकृत पंचसंग्रह' शीर्षकके नीचे परिचय संख्या ७३३ दी है । ग्रंथके शुरुमें मंगलाचरण के बाद दिया जा चुका है । शेष २७ गाथाएँ और उपलब्ध बीस अधिकारोंके कथनकी प्रतिज्ञा की गई है, और उन होती हैं । अतः ये सब गाथाएँ प्राचार्य नेमिचन्द्रकी बीस अधिकारोंका-जिनमें १४ मार्गणाएं भी शामिल बनाई हुई नहीं कही जा सकतीं। क्योंकि पंचसंग्रह हैं-ग्रन्थमें विस्तार पूर्वक कथन किया गया है । साथ गोम्मटसारसे बहुत पहलेकी रचना है। मालूम होता है ही अंतर्भावाधिकार और पालापाधिकार नामके दो कि श्राचार्य नेमिचन्द्र के सामने 'प्राकृत पंचसंग्रह' अधिकार और भी दिये गये हैं जिससे कुल अधिकारों- ज़रूर था और उसी परसे उन्होंने जीवकाण्डमें ये १२७ की संख्या २२ हो गई है जिनमें गाथाओंका और उन- गाथाएँ उद्धृत की हैं । पंचसंग्रहकी जो गाथाएँ जीवके प्रतिपाद्य विषयका स्पष्टीकरण, विवेचन एवं संग्रह काण्डमें बिना किसी पाठभेदके या थोड़ेसे साधारण बहुत ही अच्छे ढंगसे किया गया है । इसीलिये इसकी शब्द परिवर्तन के साथ पाई जाती हैं उनमेंसे नमूने के

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