Book Title: Anandghan Chovisi Author(s): Sahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta Publisher: Prakrit Bharti AcademyPage 16
________________ बिना राज ऋद्धि की आशा भिखारी की चाह के सदृश है फिरभी गुरु कृपा से पंगु के गिरि उल्लंघन सदृश कही जायगी। आत्मानुभूति के बिना आनंदघनजी के पदों का अर्थ करना गत आँख/अंधे के अंजन लगाने सदृश है। वे लिखते हैं “आशय आनंदघन तणो, अतिगंभीर उदार। बालक बाँह पसार जिम कहै उदधि विस्तार १॥ “अथवा मेरी बुद्धि में उनका आशय पकड़ना दिन के प्रकाश और अमावस की रात्रि के अंतर जैसा और बालक के हाथ पसार के नभ के विस्तार बताने जैसा है। विद्वानों को पूछने पर भी कोई कार्य सिद्धि नहीं हुई। ज्ञानविमल सूरि के अर्थ को बार-बार पढने पर भी अविचारपूर्ण लगा तो वैसी बुद्धि निपुणता और शास्त्र ज्ञान के अभाव में भी ३७ वर्ष के अध्ययन पश्चात् भी श्रावक/मुमुक्षु के आग्रह से लिखना पड़ा है। उपर्युक्त समालोचना से फलित होता है कि श्री ज्ञानविमलसूरिजी महाराज उपाध्यायजी के साथ आनंदघनजी से मिले, स्तवन लिखे आदि बातें केवल कल्पना सृष्टि है। उनका प्रकाशित चित्र भी जनता को भ्रान्ति में डालने वाला है। श्रीमद् ज्ञानसारजी के विवेचन से ज्ञात होता है कि श्रीमद् देवचंद्रजी महाराज ने उनकी चौवीसी के बाकी दोनों स्तवन लिखे थे। श्री आनंदघनजी ने चौवीसी कब और कहाँ बनाई इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है श्री यशोविजयजी महाराज का जन्म १६८१ और दीक्षा स० १६८८ के आसपास हुई थी। वे गुरु महाराज के पास ११ वर्ष अभ्यास कर उनके साथ काशी जाकर ३ वर्ष और ४ वर्ष आगरा विद्याध्ययन कर १७०६-७ में गुजरात पधारे और ग्रन्थ रचना में लगे रहे। उस समय तपागच्छ गच्छ भेद और शिथिलाचार व श्री पूज्यों के आतंक से प्रभावित था। स्वयं यशोविजयजी महाराज को उनके प्रभाव में आने को विवश होना पड़ा था। १ तेमने अढार दिवस सूरि नी नजर तले उपाश्रय नी कोटड़ीमा राख्या हता ( पृ० १२५ ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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