Book Title: Agam Suttani Satikam Part 12 Suryapragnapti Chandrapragnapati
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan

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Page 85
________________ सूर्यप्रज्ञप्तिउपाङ्गसूत्रम् ४/-/३५ तच्च तावत् 'तयाणं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई' त्यादि, तच्चैवं सूत्रतो भणनीयं‘अंतो संकुडा वाहिं वित्थडा अंतो वट्टा बाहिं पिहुला अंतो अंकमुहसंठिया बाहिं सत्थिमुहसंठिया, उभयोपासेणं तीसे दुवे बाहाओ अवट्ठियाओ भवंति, पणयालीसं २ जोयणसहस्साई आयामेणं, दुवे य णं तीसे बाहाओ अणवट्ठिआओ भवंति, तंजहा - अब्भितरिया चेव बाहा सव्वबाहिरिया चेव बाहा, तीसे णं सव्वब्भंतरिया बाहा मंदरप- व्वयंतेणं छ जोयणसहस्साइं तिन्नि य चउवीसे जोयस छच्च दसभागा जोयमस्स परिक्खेवेणं आहि० तीसे णं परिक्खेवविसेसे कओ आहि० त जेणं मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे ते णं दोहिं गुणित्ता दसहिं छित्ता दसहिं भागे हीरमाणे, एस णं परिक्खेवविसेसे आहि०ता से णं तावक्खेत्ते केवइयं आयामेणं आहि० ता तेसीइ जोयणसहस्साई तिनि तेत्तदीसे जोयणसए जोयणतिभागं आहि० तया णं किंसंठिया अंधकारसंठिई आहिअत्ति वइज्जा ?, ता उड्डीमुहकलंबुयापुप्फसंठाणसंठिया आहियत्ति वएज्जा, अंतो संकुडा बाहिं वित्थडा अंतो वट्टा बाहिं पिहुला अंतो अंकमुहसंठिया बाहिं सत्थिमुहसंठिया उभओ पासेणं तीसे दुवे बाहाओ भवंति, पणयालीसं २ जोयणसहस्साई आयामेणं, दुवे य णं तीसे बाहाओ अणवट्ठियाओ भवंति, तंजहा - सव्वब्भंतरिया चेव बाहा सव्वबाहिरिया चैव बाहा, तीसे णं सव्वब्धंतरिया बाहा मंदरपव्वयंतेणं नव जोयणसहस्साई चत्तारिय छलसीए जोयणसए नव य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहियत्ति वएज्जा, ताजे णं मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं तिहिं गुणित्ता दसहिं छित्ता दसहिं भागे हीरमाणे, . एस णं परिक्खेववसेसे आहियत्ति वएज्जा, तीसे णं सव्वबाहिरिया बाहा लवणसमुद्दतेण चउनउई जोयणसहस्साइं अट्ठ य अट्ठट्ठे जोयणसे चत्तारि य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहिए इति वएज्जा, ता एस णं परिक्खेवविसेसे कओ आहिए इति वएज्जा ?, ता जे णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स परिक्खेवे पन्नत्ते तं परिक्खेवं तिहिं गुणित्ता दसहिं छित्ता दसहिं भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिए इति वएज्जा, तीसे णं अंधकारे केवइए आयामेणं आहिए इति वइज्जा ?, ता तेसीइ जोयणसहस्साइं तिन्नि य तित्तीसे जोयणसए जोयणत्तिभागं च आहिए इति वएज्जा, तयाणं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' इदं च सकलमपि प्रागुक्तसूत्रव्याख्यानुसारेण स्वयं परिभावनीयं, तापक्षेत्रसंस्थितौ चिन्त्यमानायां यन्मंदरपरिरयादि द्वाभ्यां गुण्यते अन्धकारचिन्तायां तु तत्रिभिस्तदनन्तरं चोभयत्रापि दशभिर्विभजनं तथा सर्व वाह्ये मण्डले सूर्यस्य चारं चरतो लवणसमुद्रमध्ये पञ्च योजनसहस्राणि तापक्षेत्रं तदनुरोधाद, अन्तकारश्चायामतो वर्द्धते ततस्त्रयशीतिर्योजनसहस्रामि इत्युक्तमिति । ८२ तदेवमुक्तं तापक्षेत्रसंस्थितिपरिमाणमन्धकारसंस्थितिपरिमामं च सम्प्रत्यूर्ध्वमधः पूर्वविभागेऽपरविभागे च यावप्रकाशयतः सूर्यौ तन्निरूपणार्थं सूत्रमाह- 'ता जंबुद्दीवेण' मित्यादि, ताइति पूर्ववत्, जंबूद्वीपे कियत्-कियत्प्रमाणं क्षेत्रं सूर्यावूर्ध्व तापयतः - प्रकाशयतः कियत्क्षेत्रमधः कियत्क्षेत्रं तिर्यक्, पूर्वभागे अपरभागे चेत्यर्थ, भगवानाह - 'ता' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, जम्बूद्वीपे द्वीपे सूर्यौ प्रत्येकं स्वविमानादूर्ध्वमेकं योजनशतं तापयतः-प्रकाशयतः अधस्तापयतोऽष्टादश योजनशतानि, एतच्चाधोलौकिकग्रामापेक्षया द्रष्टव्यं, तथाहि - अधोलौकिकग्रामाः समतलभूभागमवधीकृत्याधो योजनसहस्रेण व्यवस्थिता तत्रापि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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