Book Title: Agam Sutra Satik 05 Bhagavati AngSutra 05
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan
View full book text
________________
शतकं-२४, वर्गः-, उद्देशकः-२१
३५७ भविए मणुस्सेसु उववजित्ताए से णं भंते ! केवति०?, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहत्तहितिएसु उक्कोसेणं पुव्वकोडीआउएसु उवव०॥
तेणंभंते! जीवा एवंजच्चेव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजमाणस्स पुढविक्काइयस्स वत्तव्वया सा चेव इहवि उववजमाणस्स भाणियव्वा नवसुवि गमएसु, नवरं ततियछट्टनवमेसु गमएसु परिमाणं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिनि वा उक्कोसेणं संखेज्जा उवव०, जाहे अप्पणा जहन्नकाल-हितिओभवति ताहे पढमगमए अज्झवसाणा पसत्यावि अप्पसत्यावि बितियगमए अप्पसस्था ततियगमए पसत्या भवति सेसंतं चेव निरवसेसं ९।
जइआउक्काइएएवं आउक्काइयाणवि, एवंवणस्सइकाइयाणवि, एवंजाव चउरिदियाणवि, असन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणियसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणियअसन्निमणुस्ससन्निमणुस्साण यएते सव्वेवि जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणियउद्देसए तहेव भाणियब्वा, नवरं एयाणि चेव परिमाणअज्झवसाणनाणत्ताणिजाणिज्जा पुढविकाइयस्स एत्वचेव उद्देसए भणियाणि सेसंतहेवनिरवसेसं
जइ देवेहिंतो उवव० किंभवणवासिदेवेहितो उवव० वाणमंतर जोइसिय० वेमाणियदेवेहिंतो उवव०?, गोयमा! भवणवासी जाववेमाणिय०,जइभवण० किंअसुरजाव थणिय० गोयमा! असुर जाव थणित असुरकुमारे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उवव० से णं भंते ! केवति०?, गोयमा! जह० मासपुहुत्तहितिएसु उक्कोसेणं पुवकोडिआउएसु उवव०॥
एवं जच्चेव पंचिंदियतिरिक्खजोणिउद्देसए वत्तव्बया सञ्चैव एत्थवि भाणियव्वा, नवरं जहा तहिं जहन्नगं अंतोमुत्तहितीएसुतहा इहं मासपुहुत्तहिईएसु, परिमाणं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा उववजंति, सेसंतं चेव, एवं जाव ईसाणदेवोत्ति, एयाणि चैव नाणताणिसणंकुमारादीयाजावसहस्सारोत्तिजहव पंचिंदियतिरिक्खजोणिउद्देसए, नवरंपरिमाणं जह० एको वा दो वा तिन्निवा उक्कोसेणं संखेजाउववजंति, उववाओ जहन्नेणं वासुपुहत्तहितिएसु उक्कोसेणं पुव्वकोडीआउएसु उवव०, सेसं तं चैव संवेहं वास हुत्तं पुव्वकोडीसु करेजा।
सणंकुमारे ठिती चउगुणियाअट्ठावीसं सागरोवमा भवंति, माहिंदे ताणि चेव सातिरेगाणि, बम्हलोए चत्तालीसंलंतए छप्पन्नं महासुक्के अट्ठसद्धिं सहस्सारे बावत्तरिसागरोवमाइंएसा उक्कोसा ठिती भणियव्या जहन्नट्टितिपि चउ गुणेजा ९।।
___आणयदेवे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववजित्तए से णं भंते ! केवति०?, गोयमा! जहन्नेणं वास हुत्तहितिएसु उवव० उक्कोसेणं पुव्वकोडीठितीएसु, ते णं भंते ! एवं जहेव सहस्सारदेवाणं वत्तब्वया नवरं ओगाहणा ठिई अणुबंधो य जाणेजा।
सेसं ते चेव, भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाइंउक्कोसेणं छ भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहन्नेणं अट्ठारस सागरोवमाइंवासपुहुत्तममहियाइंउक्को० सत्तावन्नसागरोवमाईतिहिं पुन्चकोडीहिं अब्भहियाइएवतियं कालं०, एवं नववि गमा, नवरं ठितिं अणुबंधं संवेहं च जाणेजा, एवं जाव अच्चुयदेवो, नवरं ठिर्ति अणुबंधंसंवेहंचजाणेजा, पाणयदेवस्स ठितीतिगुणियासद्धिं सागरोवमाई, आरणगस्स तेवढ़ि सागरोवमाई, अचुयदेवस्स छावढिं सागरोवमाइं।
जइ कप्पातीतयेमाणियदेवेहिंतो उवव० किं गेवेजकप्पातीत० अनुत्तरोववातियकप्पातीत०?, गोयमा ! गेवेज० अणुत्तरोववा०, जइ गेवेज० किं हिडिमरगेविज्जगकप्पातीतजाव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 922 923 924 925 926 927 928 929 930 931 932 933 934 935 936 937 938 939 940 941 942 943 944 945 946 947 948 949 950 951 952 953 954 955 956 957 958 959 960 961 962 963 964 965 966 967 968 969 970 971 972 973 974 975 976 977 978 979 980 981 982 983 984 985 986 987 988 989 990 991 992 993 994 995 996 997 998 999 1000 1001 1002 1003 1004 1005 1006 1007 1008 1009 1010 1011 1012 1013 1014 1015 1016 1017 1018 1019 1020 1021 1022 1023 1024 1025 1026 1027 1028 1029 1030 1031 1032 1033 1034 1035 1036 1037 1038 1039 1040 1041 1042 1043 1044 1045 1046 1047 1048 1049 1050 1051 1052 1053 1054 1055 1056 1057 1058 1059 1060 1061 1062 1063 1064 1065 1066 1067 1068 1069 1070 1071 1072 1073 1074 1075 1076 1077 1078 1079 1080 1081 1082 1083 1084 1085 1086 1087 1088 1089 1090 1091 1092 1093 1094 1095 1096