________________ सामायिक आवश्यक षडावश्यक में सामायिक का प्रथम स्थान है। वह जैन आचार का सार है। सामायिक श्रमण और श्रावक दोनों के लिये आवश्यक है। जितने भी श्रावक हैं वे जब साधना का मार्ग स्वीकार करते हैं तो सर्वप्रथम सामायिकचरित्र को ग्रहण करते हैं। चारित्र के पांच प्रकार हैं। उनमें सामायिक चारित्र प्रथम है। सामायिक चारित्र चौवीस ही तीर्थंकरों के शासन काल में रहा है, पर अन्य चार चारित्र अवस्थित नहीं हैं। श्रमणों के लिये सामायिक प्रथम चारित्र है, तो गृहस्थ साधकों के लिये सामायिक चार शिक्षावतों में प्रथम शिक्षावत है। जैन आचारदर्शन का भव्य प्रासाद सामायिक की सुदृढ नींव पर प्राधृत है। समत्ववृत्ति की साधना किसी व्यक्तिविशेष या वर्गविशेष की धरोहर नहीं है। वह सभी साधकों के लिये है और जो समत्ववृत्ति की साधना करता है वह जैन है। प्राचार्य हरिभद्र ने तो स्पष्ट रूप से कहा है कि साधक चाहे श्वेताम्बर हो, चाहे दिगम्बर हो, बौद्ध हो या अन्य किसी मत का हो, जो भी समभाव में स्थित होगा वह नि:संदेह मोक्ष को प्राप्त करेगा।'५ एक व्यक्ति प्रतिदिन एक लाख स्वर्ण मुद्राओं का उदारतापूर्वक दान करता है, दूसरा व्यक्ति समत्वयोग की साधना करता है। इन दोनों में महान कौन है ? इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए तत्वदर्शी मनीषियों ने कहा--जो समत्वयोग-सामायिक की साधना करता है, वह महान् है / करोड़ों वर्षों तक तपश्चरण की निरन्तर साधना करने वाला जिन कर्मों को नष्ट नहीं कर पाता, उनको समभावी साधक कुछ ही क्षणों में नष्ट कर लेता है। कोई भी साधक विना समभाव के मुक्त नहीं हरा है और न होगा ही। अतीत काल में जो साधक मुक्त हुए हैं, वर्तमान में जो मुक्त हो रहे हैं तथा भविष्य में जिन्हें मुक्त होना है, उनके मुक्त होने का आधार सामायिक था है/रहेगा। सामायिक एक विशुद्ध साधना है। सामायिक में साधक की वित्तवत्ति क्षीरसमुद्र की तरह एकदम शान्त रहती है, इसलिये वह नवीन कमों का बन्ध नहीं करता। आत्मस्वरूप में स्थित रहने के कारण जो कर्म शेष रहे हुए हैं, उनकी वह निर्जरा कर लेता है। इसीलिये प्राचार्य हरिभद्र ने लिखा है कि सामायिक की विशुद्ध साधना से जीव धातिकर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है।' - आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में सामायिक की परिभाषा करते हुए लिखा है-सम उपसर्ग पूर्वक गति अर्थ वाली "इग्" धातु से 'समय' शब्द निष्पन्न होता है। सम्-~-एकीभाव, अय-मन अर्थात् एकीभाव के द्वारा बाह्य परिणति से पुन: मुड़कर आत्मा की ओर गमन करना समय है। समय का भाव सामायिक हरिभद्र 15. सेयम्बरो वा पासम्बरो वा बुद्धो वा तहेव अन्नो वा। समभावभावियप्पा लहेइ मुक्खं न संदेहो // 16. दिवसे दिवसे लक्खं देइ सुवण्णस्स खंडियं एगो। एगो पुण सामाइयं, करेइ न पहुप्पए तस्स // 17. तिब्बतबं तवमाणे जं न वि निवट्टइ जम्मकोडीहिं / तं समभाविप्रचित्तो, खबेइ कम्म खणण / / 18. सामायिक-विशुद्धात्मा सर्वथा घातिकर्मणः / क्षयात्केवलमाप्नोति लोकालोकप्रकाशकम् / / हरिभद्र अष्टक-प्रकरण, 30-1 [19] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org