Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 165
________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण] [95 मूल पाठ में कतिपय विशेषण ऐसे भी हैं जिनका रहस्य हमें विशेष रूप से ध्यान में रखना चाहिये / भगवान् को 'अभयदयाणं' ग्रादि कहा गया है, अर्थात् भगवान् अभयदाता हैं, चक्षुदाता हैं, मार्ग के दाता हैं, बोधि के दाता हैं, इत्यादि / किन्तु जैनदर्शन के अनुसार, भगवान के स्वयं के कथनानुसार कोई किसी को शुभ या अशुभ फल प्रदान नहीं कर सकता / अागम में कहा है—'अत्ता कत्ता विकत्ता य / ' अर्थात् पुरुष स्वयं अपने कर्मों का कर्ता-हर्ता और सुख-दुःख का जनक है / आचार्य अमितगति ने इसी तथ्य को स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् / परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा // अर्थात् अतीत काल में आत्मा ने स्वयं जो शुभ या अशुभ कर्म किए हैं, उन्हीं का शुभ या अशुभ फल वह प्राप्त करता है / यदि दूसरे के द्वारा दिया फल मिलता हो तो स्पष्ट है कि अपने किए कर्म निष्फल हो जायें ! आगे वही कहते हैं निजाजितं कर्म विहाय देहिनो, न कोऽपि कस्यापि ददाति किञ्चन / विचारयन्नेवमनन्यमानसो परो ददातीति विमुञ्च शेमुषीम् / / अर्थात् अपने उपार्जित कर्मों के सिवाय कोई किसी को कुछ भी नहीं देता। ऐसा विचार करके अनन्यमनस्क बनो-अपनी ओर दृष्टि लगाओ / दूसरा कोई कुछ देता है, इस बुद्धि का परित्याग कर दो। जैनदर्शन का यह सच्चा प्रात्मवाद है और यह आत्मा के अनन्त, असीम पुरुषार्थ को जगाने वाला है। यह किसी के समक्ष दैन्य दिखला कर भिखारी न बनने का महामूल्य मंत्र है / यही पारमार्थिक दृष्टि है, तो फिर भगवान् को अभय आदि का दाता क्यों कहा गया है ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि प्रत्येक कार्य के कारण दो प्रकार के होते हैं-उपादान और निमित्त / कार्य की निष्पत्ति दोनों प्रकार के कारणों से होती है, एक से नहीं / घट बनाने के लिए जैसे उपादान मृत्तिका आवश्यक है, उसी प्रकार कुम्भकार, चाक आदि निमित्तकारण भी अनिवार्य रूप से अपेक्षित हैं। इस नियम के अनुसार अपने उत्कर्ष का-मोक्ष का उपादान कारण स्वयं प्रात्मा है और निमित्तकारण अरिहन्त भगवान् एवं तत्प्ररूपित धर्म संघ आदि हैं / व्यवहारनय से निमित्तकारण को भी कर्ता कहा जाता है, जैसे कुंभार को घट का कर्ता कहा जाता है / अतः प्रस्तुत पाठ में भी व्यवहारनय की दष्टि की प्रधानता से अरिहन्त भगवान को 'दाता' कहा है. क्योंकि अरिद्रत उस पथ के उपदेष्टा हैं, जिसका अनुसरण करने से जीव सदा काल के लिए अभय-भयमुक्त बनता है / 'अभय' शब्द का अर्थ 'संयम' भी है / भगवान् संयमोपदेष्टा होने से भी अभयदाता हैं। इसी प्रकार चक्षुदाता आदि विशेषणों के विषय में भी समझ लेना चाहिये। विशिष्ट शब्दों का अर्थ-भगवंताणं भगवन्तों को। 'भग' शब्द के छह अर्थ हैं--१. ऐश्वर्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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