Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 188
________________ 118] [आवश्यक सूत्र चउविहाहार और तिविहाहार के रूप में उपवास दो प्रकार का होता है / सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन सूर्योदय तक चारों प्रकार के आहारों का त्याग करना 'चउविहाहार अभत्तट्ट' कहलाता है / तिविहाहार अर्थात् त्रिविधाहार उपवास में पानी लिया जाता है / अतः जल सम्बन्धी छह प्रागार मूल पाठ में 'सव्वसमाहिवत्तियागारेणं' के आगे इस प्रकार बढ़ाकर बोलना चाहिये"याणस्स लेवाडेण वा, अलेवाडेण वा, अच्छेण वा, बहलेण वा, ससित्थेण वा, असित्थेण वा बोसिरामि।" उक्त छह आगारों का उल्लेख जिनदासमहत्तर, हरिभद्र और सिद्धसेन आदि प्रायः सभी प्राचीन आचार्यों ने किया है। केवल उपवास में ही नहीं अन्य प्रत्याख्यानों में भी जहाँ त्रिविधाहार करना हो, सर्वत्र उपयुक्त पाठ बोलने का विधान है। यद्यपि आचार्य जिनदास आदि ने इस का उल्लेख अभक्तार्थ के प्रसंग पर ही किया है। उक्त जल सम्बन्धी प्रागारों का भावार्थ इस प्रकार है: 1. लेपकृत–दाल आदि का माँड तथा इमली, खजूर, द्राक्षा आदि का पानी। वह सब पानी जो पात्र में उपलेपकारक हो, लेपकृत कहलाता है। त्रिविधाहार में इस प्रकार का पानी ग्रहण किया जा सकता है। 2. अलेपकृत छाछ आदि का निथरा हुआ और कॉजी आदि का पानी अलेपकृत कहलाता है / अलेपकृत पानी से वह धोवन लेना चाहिए, जिसका पात्र में लेप न लगता हो। 3. अच्छ—अच्छ का अर्थ स्वच्छ है / गर्म किया हुआ स्वच्छ पानी ही अच्छ शब्द से ग्राह्य है। हां, प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति के रचयिता आचार्य सिद्धसेन उष्णोदकादि का कथन करते हैं / 'अपिच्छलात् उष्णोदकादे: / ' परन्तु आचार्यश्री ने स्पष्टीकरण नहीं किया कि 'आदि' शब्द से उष्ण जल के अतिरिक्त और कौन सा जल ग्राह्य है ? संभव है फल आदि का स्वच्छ धोवन ग्राह्य हो / एक गुजराती अर्थकार ने ऐसा लिखा भी है। 4. बहल-तिल, चावल और जौ आदि का चिकना मांड बहल कहलाता है / बहल के स्थान पर कुछ प्राचार्य बहुलेप शब्द का भी प्रयोग करते हैं। 5. ससिक्थ-पाटा आदि से लिप्त हाथ तथा पात्र आदि का वह धोवन जिसमें सिक्थ अर्थात् आटे आदि के कण भी हों। इस प्रकार का जल त्रिविधाहार उपवास में लेने से व्रत भंग नहीं होता। 6. असिक्थ-आटा आदि से लिप्त हाथ तथा पात्र आदि का वह धोवन, जो छना हुआ हो, फलतः जिसमें प्राटे आदि के कण न हों। पण्डित सुखलाल जी का कहना है-प्रारम्भ से ही चउन्विहाहार उपवास करना हो तो 'पारिद्वावणियागारेणं' बोलना चाहिए। यदि प्रारम्भ में त्रिविधाहार किया हो, परन्तु पानी न लेने के कारण सायंकाल के समय तिविहाहार से चउविहाहार उपवास करना हो तो 'पारिद्वावणिया• गारेणं' नहीं बोलना चाहिए। 8. दिवसचरिम-सूत्र दिवसचरिमं (भवचरिमं वा) पच्चक्खामि चउन्विहं पि पाहारं असणं, पाणं, खाइम, साइमं / अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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