Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 173
________________ बारह व्रतों के अतिचारों का प्रतिक्रमण] [103 होते हैं। वे निम्न प्रकार हैं, उनकी आलोचना करता हूँ / यदि मैंने 1. मर्यादा से अधिक सचित्त वस्तु का आहार किया हो, 2. सचित्त वृक्षादि के साथ लगे हुए गोंद आदि पदार्थों का आहार किया हो, 3. अग्नि से बिना पकी हुई वस्तु का भोजन किया हो, 4. अधपकी वस्तु का भोजन किया हो, 5. तुच्छ औषधि का भक्षण किया हो तथा पन्द्रह कर्मादान का सेवन किया हो तो मैं उनकी आलोचना करता हूँ और चाहता हूँ कि मेरा सब पाप निष्फल हो / एक बार उपयोग में आने वाली वस्तू पाहारादि की गणना उपभोग में और बार-बार काम में आने वाली वस्त्र आदि वस्तु परिभोग में गिनी जाती है। जिनसे तीव्रतर कर्मों का आदान-ग्रहणबन्धन होता है, वे व्यवसाय या धन्धे कर्मादान हैं / उनकी संख्या पन्द्रह है और अर्थ इस प्रकार है 1. इंगाल-कर्म-लकड़ियों के कोयले बनाने का, भड़भूजे का, कुभार का, लोहार का, सुनार का, ठठेरे-कसेरे का और ईट पकाने का धन्धा करना 'अंगार-कर्म' कहलाता है। 2. वन-कर्म-वनस्पतियों के छिन्न या अच्छिन्न पत्तों, फूलों या फलों को बेचना तथा अनाज को दलने या पीसने का धन्धा करना' 'वन-जीविका' है। 3. शकट-कर्म छकड़ा, गाड़ी आदि या उनके पहिया आदि अंगों को बनाने, बनवाने, चलाने तथा बेचने का धन्धा करना 'शकट-जीविका' है / 4. भाटक-कर्म-गाड़ी, बैल, भैसा, ऊंट, गधा, खच्चर आदि पर भार लादने की अर्थात इनसे भाड़ा-किराया कमाकर आजीविका चलाना 'भाटक-जीविका' है। 5. स्फोट-कर्म-तालाब, कूप, बावड़ी आदि खुदवाने और पत्थर फोड़ने-गढ़ने आदि पृथ्वीकाय की प्रचुर हिंसा रूप कर्मों से आजीविका चलाना 'स्फोट-जीविका' है / 6. दन्त-वाणिज्य-हाथी के दांत, चमरी गाय आदि के बाल, उलक आदि के नाखून, शंख आदि की अस्थि, शेर-चीता आदि के चर्म और हंस आदि के रोम और अन्य स-जीवों के अंगों को उनके उत्पत्ति स्थान में जाकर लेना या पेशगी द्रव्य देकर खरीदना ‘दन्त-वाणिज्य' कहलाता है। 7. लाक्षा-वाणिज्य-लाख, मेनसिल, नील, धातकी के फूल, छाल आदि, टंकण-खार आदि पाप के कारण है, अतः उनका व्यापार भी पाप का कारण है। यह 'लाक्षा-वाणिज्य' कर्मादान कहलाता है। 8-6. रस-केश-वाणिज्य-मक्खन, चर्बी, मधु और मद्य आदि बेचना 'रस-वाणिज्य' कहलाता है और द्विपद एवं चतुष्पद अर्थात् पशु-पक्षी आदि का विक्रय करने का धन्धा करना 'केश-वाणिज्य' कहलाता है। 10. विष-वाणिज्य--विष, शस्त्र, हल, यंत्र, लोहा और हरताल आदि प्राणघातक वस्तुओं का व्यापार करना 'विष-वाणिज्य' कहलाता है / 1. वन में से घास, लकड़ी काट कर लाना और बेचना / 2. जमीन फोड़कर खनिज पदार्थ निकालना, बेचना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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