Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 178
________________ पञ्चमाध्ययन : कायोत्सर्ग पांचवां अावश्यक कायोत्सर्ग है। निर्ग्रन्थ-परम्परा का यह एक पारिभाषिक शब्द है / / यो 'काय' और 'उत्सर्ग' शब्दों के मिलने से यह शब्द निष्पन्न हुआ है, किन्तु इसका अर्थ काय—शरीर का . उत्सर्ग-त्याग करना नहीं, वरन् शरीर के ममत्व का त्याग करना है। समस्त जागतिक वस्तुओं पर जो ममत्वभाव उत्पन्न होता है, उसका मूल शरीर ही है / जिस साधक के मन में शरीर के प्रति ममता न रह जाए, अन्य प्रत्यक्षतः भिन्न दिखने वाले पदार्थों पर उसमें ममता रह ही नहीं सकती / मुक्तिपथ का पथिक साधक प्रभु के समक्ष इसीलिए यह प्रार्थना–कामना करता है शरीरतः कर्तुमनन्तशक्ति, विभिन्नमात्मानमपास्तदोषम् / जिनेन्द्र ! कोषादिव खड्गष्टि, तव प्रसादेन ममास्तु शक्तिः // प्राचार्य अमितगति अर्थात् हे जिनेन्द्र ! आपके प्रसाद से मुझमें ऐसी शक्ति आविर्भूत हो जाए कि मैं अपने आपको-अपने आत्मा को उसी प्रकार शरीर से पृथक् कर सकू, जिस प्रकार म्यान से तलवार को पृथक् कर लिया जाता है। इस प्रकार की कामना करते-करते साधक एक दिन उस उच्च स्थिति पर पहुँच जाता है, जिसके लिए आगम निर्देश करता है ____ 'अवि अप्पणो वि देहमि नायरंति ममाइयं / ' -दशवकालिक अर्थात् अपने देह पर भी साधक का ममभाव नहीं रहता। इस प्रकार देह में रहते हुए भी देहातीत दशा प्राप्त हो जाना महत्त्वपूर्ण साधना है। इसी को प्राप्त करने के स्पहणीय उद्देश्य से कायोत्सर्ग किया जाता है और इसे आवश्यकों में परिगणित किया है। यह एक प्रकार का प्रायश्चित्त भी है, जिसके द्वारा पूर्वकृत पापों का विनाश होता है और साधना में निर्मलता पाती है __ तस्स उत्तरीकरणेणं, पायच्छित्तकरणेणं, विसोहीकरणेणं, विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं णिग्घायणटाए ठामि काउस्सग्गं / अर्थात् संयम को अधिक उच्च बनाने के लिए, प्रायश्चित्त करने के लिए, विशुद्धि करने के लिए, आत्मा को शल्यरहित करने के लिए और पाप-कर्मों का समूल नाश करने के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। कायोत्सर्ग दो प्रकार का है—द्रव्यकायोत्सर्ग और भावकायोत्सर्ग / शारीरिक चेष्टाओंव्यापारों का त्याग करके, जिन-मुद्रा से एक स्थान पर निश्चल खड़े रहना द्रव्यकायोत्सर्ग है / प्रात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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