Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 185
________________ वष्ठोध्ययन : प्रत्याख्यान] [115 कल तिविहार एकाशन की प्रथा ही प्रचलित है, अतः मूलपाठ में 'तिविह' पाठ दिया है / यदि चउविहार करना हो तो 'चउविहं पि प्राहारं असणं, पाणं, खाइम, साइमं ऐसा पाठ बोलना चाहिए। दुविहार-एकाशन की परम्परा प्राचीनकाल में थी / आज के युग में इसका प्रचलन बहुत कम है, यद्यपि सर्वथा का प्रभाव नहीं है। एकाशन में आठ प्रागार होते हैं / चार पहले आ चुके हैं, शेष चार इस प्रकार हैं 1. सागारिकाकार--आगम की भाषा में सागारिक गृहस्थ को कहते हैं / गृहस्थ के आ जाने पर उसके सम्मुख भोजन करना निषिद्ध है / अत: सागारिक के आने पर साधु को भोजन करना छोड़कर यदि बीच में ही उठकर, एकान्त में जाकर पुनः दूसरी बार भोजन करना पड़े तो व्रत भंग नहीं होता है। 1. आकुञ्चनप्रसारण भोजन करते समय सुन्न पड़ जाने पर हाथ, पैर आदि अंगों का सिकोड़ना या फैलाना / 3. गुर्वभ्युत्थान–गुरुजन एवं किसी अतिथिविशेष के आने पर उनका विनय-सत्कार करने के लिए उठना, खड़े होना। प्रस्तुत प्रागार का प्राशय बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। गुरुजन एवं अतिथिजन के आने पर अवश्य ही उठकर खड़ा हो जाना चाहिए / उस समय यह भ्रांति नहीं रखनी चाहिए कि 'एकासन में उठकर खड़े होने का विधान नहीं है / अतः उठने या खड़े होने से व्रत भंग के कारण मुझे दोष लगेगा।' गुरुजनों के लिए उठने में कोई दोष नहीं है, इससे व्रत भंग नहीं होता, प्रत्युत विनय तप की आराधना होती हैं / आचार्य सिद्धसेन लिखते हैंगुरूणामभ्युत्थानार्हत्वादवश्यं भुजानेनाऽप्युत्थानं कर्त्तव्यमिति, न तत्र प्रत्याख्यानभङ्गः।' --प्रवचनसारोद्धारवृत्ति 4. पारिष्ठापनिकाकार-जैन मुनि के लिए विधान है कि वह अपनी आवश्यक क्षुधापूर्ति के लिए परिमित मात्रा में ही आहार लाए, अधिक नहीं / तथापि कभी भ्रांतिवश यदि किसी मुनि के पास आहार अधिक आ जाय और वह परठना-डालना पड़े तो उस आहार को गुरुदेव की आज्ञा से तपस्वी मुनि को ग्रहण कर लेना चाहिए। प्राचार्य सिद्धसेन ने कहा है आहार को परठ देने में बहुत दोषों की संभावना रहती है और उसे ग्रहण-भक्षण कर लेने में प्रागमिक न्याय के अनुसार गुण-लाभ है, अतएव गुरु की आज्ञा से पुनः उसका उपभोग कर लेने से व्रत-भंग नहीं होता।' 5. एगट्ठाणपच्चक्खाण एक्कासणं एगट्टाणं पच्चक्खामि, तिविहं पि प्राहार---असणं, खाइम, साइमं / अन्नत्थऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, सागारियागारेणं, गुरुप्रन्भुटाणेणं, पारिद्वावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि। 1. प्रवचनसारोद्धारवृत्ति / 2. चारों प्रकार के आहार का त्याग करना हो तो 'चउब्धिहं पि' ऐसा पाठ बोलना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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