Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 171
________________ बारह व्रतों के अतिचारों का प्रतिक्रमण] [101 . भावार्थ--चौथे अणुव्रत में स्थूल मैथुन से विरमण किया जाता है। मैं जीवनपर्यन्त अपनी विवाहिता स्त्री में ही संतोष रखकर शेष सब प्रकार के मैथुन-सेवन का त्याग करता हूँ अर्थात् देव-देवी सम्बन्धी मैथुन का सेवन मन, वचन, काया से न करूगा और न कराऊंगा। मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी मैथुनसेवन काया से न करूगा / यदि मैंने इत्वरिका परिगृहीता अथवा अपरिगृहीता से गमन करने के लिये पालाप-सलापादि किया हो, प्रकृति के विरुद्ध अंगों से कामक्रीडा करने की चेष्टा की हो, दूसरे के विवाह करने का उद्यम किया हो, कामभोग की तीव्र अभिलाषा की हो तो मैं इन दुष्कृत्यों की पालोचना करता हूँ। वे मेरे सब पाप निष्फल हों। 5. परिग्रहपरिमाणवत के अतिचार पांचवां अणुव्रत-थूलाओ परिग्गहारो वेरमणं, खेत्तवत्थु का यथापरिमाण, हिरण्ण-सुवण्ण का यथापरिमाण, धन-धान्य का यथापरिमाण, दुपय-चउप्पय का यथापरिमाण, कुविय धातु का यथापरिमाण, जो परिमाण किया है उसके उपरान्त अपना करके परिग्रह रखने का पच्चक्खाण, जावज्जीवाए एगविहं तिविहेणं न करेमि मणसा, वयसा, कायसा एवं पांचवां स्थल परिग्रहपरिमाण व्रत के पंच अइयारा जाणियन्वा, न समायरियव्वा, तं जहा ते आलोऊ-खेत्तवत्थुप्पमाणाइक्कमे, हिरण्णसुवण्णप्पमाणाइक्कमे, धणधष्णप्पमाणाइक्कमे, दुपयचउप्पयप्पमाणाइक्कमे, कुवियप्पमाणाइक्कमे तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। भावार्थ-खेत-खुली जगह, वास्तु-महल-मकान आदि, सोना-चांदी, दास-दासी, गाय, हाथी, घोड़ा, चौपाये आदि, धन-धान्य तथा सोना-चांदी के सिवाय कांसा, पीतल, तांबा, लोहा आदि धातु तथा इनसे बने हुए बर्तन आदि और शैय्या, आसन, वस्त्र आदि घर सम्बन्धी वस्तुओं का मैंने जो परिमाण किया है. इसके उपरान्त सम्पूर्ण परिग्रह का मन, वचन, काया से जवन पर्यन्त त्याग करता हूँ। यदि मैंने खेत, वास्तु-महल मकान के परिमाण का उल्लंघन किया हो, सोना, चांदी के परिमाण का उल्लंघन किया हो, धन, धान्य के परिमाण का उल्लंघन किया हो, दास, दासी आदि द्विपद और हाथी, घोड़ा आदि चतुष्पद की संख्या के परिमाण का उल्लंघन किया हो, (इनके अतिरिक्त) दूसरे द्रव्यों की मर्यादा का उल्लंघन किया हो तो मैं उसकी आलोचना करता हूँ और चाहता हूँ कि मेरे वे सब पाप निष्फल हों। 6. दिग्वत के अतिचार छठा दिशिव्रत-उड्ढदिसि का यथापरिमाण, अहोदिसि का यथापरिमाण, तिरियदिसि का यथापरिमाण किया हो, उसके उपरान्त स्वेच्छा से काया से आगे जाकर पांच प्राश्रव सेवन का पच्चक्खाण जावज्जीवाए छठे एगविहं तिविहेणं-न करेमि मणसा, वयसा, कायसा एवं छठे दिशिवत के पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा ते. आलोऊ-उड्ढदिसिप्पमाणाइक्कमे, अहोदिसिप्पमाणइक्कमे, तिरियदिसिप्पमाणाइक्कमे, खित्तवुड्ढी, सइअन्तरद्धा, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। भावार्थ-जो मैंने ऊर्ध्वदिशा, अधोदिशा और तिर्यदिशा का परिमाण किया है, उसके आगे गमनागमन आदि क्रियाओं को मन, वचन, काया से न करूंगा। यदि मैंने ऊर्वदिशा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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