Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 170
________________ 100] [आवश्यकसूत्र भावार्थ-मैं जीवनपर्यन्त मन, वचन, काया से स्थूल झूठ नहीं बोलगा और न बोलाऊंगा। कन्या-वर के संबंध में, गाय, भैस आदि पशुओं के विषय में तथा भूमि के विषय में कभी असत्य नहीं बोलूगा / किसी की रखी हुई धरोहर (सौंपी हुई रकम आदि) के विषय में असत्यभाषण नहीं करूगा और न धरोहर को हीनाधिक बताऊंगा तथा झूठी साक्षी नहीं दूंगा। यदि मैंने किसी पर झूठा कलंक लगाया हो, एकान्त में मंत्रणा करते हुए व्यक्तियों पर झूठा आरोप लगाया हो, अपनी स्त्री के गुप्त विचार प्रकाशित किए हों, मिथ्या उपदेश दिया हो, झूठा लेख (म्टाम्प, बही-खाता अादि) लिखा हो तो मेरे वे सब पाप निष्फल हो / 3. अदत्तादानविरमणाणवत के अतिचार तीजा अणुव्रत---थूलामो अदिण्णादाणाओ वेरमणं खात खनकर, गांठ खोलकर, ताले पर कूची लगाकर, मार्ग में चलते को लूटकर, पड़ी हुई धणियाती मोटी वस्तु जानकर लेना, इत्यादि मोटा अदत्तादान का पच्चक्खाण, सगे सम्बन्धी व्यापार सम्बन्धी तथा पड़ी निभ्रमी वस्तु के उपरान्त अदत्तादान का पच्चक्खाण जावज्जीवाए दुविहं तिबिहेणं-- न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा एवं तीजा स्थल अदत्तादान वेरमण व्रत के पंच अइयारा जाणियन्वा न समायरियव्वा, तं जहा ते आलोउं तेनाहडे, तक्करप्पनोगे, विरुद्धरज्जाइक्कमे, कूडतुल्लकूडमाणे, तप्पडिरूवगववहारे तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। भावार्थ-मैं किसी के मकान में खात लगाकर अर्थात् भींत (खोदकर) फोड़कर, गांठ खोलकर, ताल पर कूची लगाकर अथवा ताला तोड़कर किसी की वस्तु को नहीं लगा, मार्ग में चलते हुए को नहीं लूटूगा, किसी की मार्ग में पड़ी हुई मोटी वस्तु को नहीं लूगा, इत्यादि रूप से सगे सम्बन्धी, व्यापार सम्बन्धी तथा पड़ी हुई शंका रहित वस्तु के उपरान्त स्थूल चोरी को मन-वचन-काया से न करूगा और न कराऊंगा। यदि मैंने चोरी की वस्तु ली हो, चोर को सहायता दी हो, या चोरी करने का उपाय बतलाया हो, लड़ाई के समय विरुद्ध राज्य में पाया-गया होऊ, झूठा तोल व माप रखा हो, अथवा उत्तम वस्तु दिखाकर खराब वस्तु दी हो (वस्तु में मिलावट की हो), तो मैं इन कुकृत्यों (बुरे कामों) की आलोचना करता हूँ। वे मेरे सब पाप निष्फल हो। 4. ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार चौथा अणुव्रत... थूलाओ मेहुणानो वेरमणं सदार संतोसिए' अवसेस मेहुणविहिं पच्चक्खामि जावज्जीवाए देव देवी सम्बन्धी दुविहं तिविहेणं न करेमि, न कारवेमि मणसा, वयसा, कायसा तथा मनुष्य तिर्यञ्च सम्बन्धी एगविहं एगविहेणं न करेमि कायसा एवं चौथा स्थूल स्वदारसंतोष, परदारविवर्जन रूप मैथुनवेरमणव्रत के पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा ते आलोउं-इत्तरिय परिग्गहियागमणे, अपरिग्गहियागमणे, अनंगक्रीडा, परविवाहकरणे, कामभोगतिब्वाभिलासे, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं / 1. 'स्वदारसंतोष' ऐसा पुरुष को बोलना चाहिये और स्त्री को 'स्वपतिसंतोष' ऐसा बोलना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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