Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 148
________________ 78 [आवश्यकसूत्र. ही वह भूमिका है कि जिस पर सफलता का अंकुर उत्पन्न होता है, पनपता है, बढ़ता है और फलप्रद होकर कृतकृत्य बना देता है। जिस व्यक्ति की अपने ध्येय में एकनिष्ठा नहीं, दृढ़ आस्था नहीं, अटूट विश्वास नहीं, उस ढुलमुल साधक का कोई भी कार्य सफल नहीं हो सकता। चाहे विद्याभ्यास हो, कलासाधना हो, व्यापार हो, उद्योग हो अथवा धार्मिक क्रिया हो, सभी में एकनिष्ठ बनकर श्रद्धा एवं विश्वासपूर्वक पुरुषार्थ करने से ही सफलता प्राप्त हो सकती है। श्रद्धा के दो रूप होते हैं-प्रथम सम्यक् श्रद्धा एवं दूसरी अंध श्रद्धा / सम्यक् श्रद्धा विवेकपूर्ण होती है तथा अन्ध श्रद्धा अविवेकमय होती है। दोनों का उदगमस्थान मानव का हृदय है। जैसे गौ के स्तनों से विवेकी मानव दूध प्राप्त कर लेता है और जोंक नामक जीव रक्त प्राप्त करता है। स्थान तो एक ही है एक ही खान से हीरा और कोयला, एक ही पौधे से फूल और शूल प्राप्त होते हैं। किसे क्या ग्रहण करना है, यह सब अपनी दृष्टि पर निर्भर करता है / सम्यक् श्रद्धा दो प्रकार की है- सुगुरु, सुदेव एवं सुधर्म पर श्रद्धा होना व्यवहार-समकित (श्रद्धा) है तथा जो साधक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र-इन आत्मिक गुणों में निष्ठावान् होता है, जिसे आत्मा का असली स्वरूप अवगत हो गया है और आत्मा के अनन्त सामर्थ्य पर विश्वास है, वह साधक निश्चय सम्यक्त्व का अधिकारी कहलाता है / श्रद्धा मुक्ति-महल में प्रवेश करने का प्रथम सोपान है। वास्तव में साधना का धरातल सम्यग्दर्शन ही है। इसके अभाव में किसी भी क्रिया के साथ धर्म शब्द नहीं जुड़ सकता। साधक प्रस्तुत पाठ में प्रतिज्ञा करता है कि वीतराग के बताए धर्म पर मैं श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ अर्थात् धर्म में विश्वास करता हूँ, प्रीति करता हूँ एवं रुचि करता हूँ आदि। फासेमि-पालेमि-अणुपालेमि-जैनदर्शन केवल श्रद्धा एवं प्रतीति को ही साध्य की सिद्धि में हेतुभूत नहीं मानता है। प्रथम सोपान पर चढ़कर वहीं जमे रहने से मुक्ति-महल में प्रवेश नहीं किया जा सकता / आगमकारों ने साधक को संकेत दिया है कि प्रात्म-सिद्धि के लिए सम्यश्रद्धा के साथ आगे बढ़ना होगा, ऊपर चढ़ना होगा और यह प्रतिज्ञा भी करनी होगी कि मैं धर्म का स्पर्श करता है, जीवन पर्यन्त प्रत्येक स्थिति में उसका पालन करता हूँ अर्थात अनुकल एवं प्रतिकल परिस्थितियों में भी स्वीकृत धर्माचार की रक्षा करता हूँ। पूर्व प्राप्त पुरुषों द्वारा आचरित धर्म का दृढ़तापूर्वक प्रतिपल पालन करता हूँ। इस प्रतिज्ञा की मुमुक्षु साधक बार-बार पुनरावृत्ति करता रहता है। तभी वह अपने ध्येय में सफल हो सकता है। जैसे दर्जी खण्ड पट को अखण्ड रूप देने के लिए सुई के साथ धागा भी लेता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व (श्रद्धा) के साथ प्राचरण को भी अनिवार्यता है / अब्भुट्टिनोमि-प्रस्तुत पाठ में साधक यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं धर्म की श्रद्धा, प्रीति, प्रतीति, स्पर्शना, पालना तथा अनुपालना करता हुआ धर्म की आराधना में सम्यक् प्रकारेण अभ्युत्थित होता हूँ अर्थात् तैयार होता हूँ। धर्माराधना के क्षेत्र में दृढ़ता के साथ खड़ा होता है। ज्ञ-परिज्ञा एवं प्रत्याख्यान-परिज्ञा--आचाराङ्ग आदि आगम साहित्य में दो प्रकार की परिज्ञाओं का उल्लेख आता है—एक ज्ञ-परिज्ञा, दूसरी प्रत्याख्यान-परिज्ञा / ज्ञ-परिज्ञा का अर्थ है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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