Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 157
________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण] [87 वन्दनीय, अठारह दोष रहित, बारह गुण सहित, अनन्त ज्ञान, अनन्त चारित्र, अनन्त बलवीर्य, अनन्त सुख, दिव्यध्वनि, भामण्डल, स्फटिक सिंहासन, अशोक वृक्ष, कुसुमवृष्टि, देवदुन्दुभि, छत्र धरावे, चंवर विजावे, पुरुषाकार पराक्रम के धरणहार, अढ़ाई द्वीप पन्द्रह क्षेत्र में विचरे, जघन्य दो करोड़ केवली और उत्कृष्ट नव करोड़ केवली, केवलज्ञान केवलदर्शन के धरणहार, सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव के जाननहार ऐसे श्री अरिहंत भगवन्त महाराज आपकी दिवस एवं रात्रि संबंधी अविनय पाशातना की हो तो हे अरिहंत भगवन् ! मेरा अपराध बारंबार क्षमा करिये / हाथ जोड़, मान मोड़, शीश नमाकर तिक्खुत्तो के पाठ से 1008 बार नमस्कार करता हूँ। (यहां तिक्खुत्तो का पाठ बोलना) आप मंगलिक हो, उत्तम हो, हे स्वामिन् ! हे नाथ ! आपका इस भव, परभव एवं भव-भव में सदाकाल शरण हो। दूसरे पद श्री सिद्ध भगवान् पन्द्रह भेदे अनन्त सिद्ध हुए हैं तीर्थसिद्धा, अतीर्थसिद्धा, तीर्थंकरसिद्धा, अतीर्थकरसिद्धा, स्वयंबुद्धसिद्धा, प्रत्येकबुद्धसिद्धा, बुद्धबोधितसिद्धा, स्त्रीलिंगसिद्धा, पुरुषलिंगसिद्धा, नपुसकलिंगसिद्धा, स्वलिंगसिद्धा, अन्यलिंगसिद्धा, गृहलिंगसिद्धा, एकसिद्धा, अनेकसिद्धा / जहां जन्म नहीं, जरा नहीं, मरण नहीं, भय नहीं, रोग नहीं, शोक नहीं, दु:ख नहीं, दारिद्रय नहीं, कर्म नहीं, काया नहीं, मोह नहीं, माया नहीं, चाकर नहीं, ठाकर नहीं, भूख नहीं, नहीं, ज्योत में ज्योत विराजमान, सकल कार्य सिद्ध करके चवदे प्रकारे पन्द्रह भेदे अनन्तसिद्ध भगवान् हुए हैं / अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, क्षायक सम्यक्त्व, अनन्तसुख, अटल अवगाहना, अमूर्तिक, अगुरुलघु, अनन्तवीर्य, ये आठ गुण करके सहित हैं। ऐसे श्री सिद्ध भगवन्त जी महाराज अापकी दिवस सम्बन्धी अविनय पाशातना की हो तो बारम्बार हे सिद्ध भगवान् ! मेरा अपराध क्षमा करिये / हाथ जोड़, मान मोड़, शीश नमा कर, तिक्खुत्तो के पाठ से 1008 बार नमस्कार करता हूँ। यावत् भव-भव सदा काल शरण हो / ___ तीसरे पद श्री आचार्य महाराज छत्तीस गुण करके विराजमान हैं, पांच महाव्रत पाले, पांच प्राचार पाले, पांच इन्द्रिय जीते, चार कषाय टाले, नववाड़ सहित शुद्ध ब्रह्मचर्य पाले, पांच समिति, तीन गुप्ति शुद्ध आराधे, ये छत्तीस गुण और आठ सम्पदा (1. प्राचार सम्पदा, 2. श्रुत सम्पदा, 3. शरीर सम्पदा 4. वचन सम्पदा, 5. वाचना संपदा, 6. मति सम्पदा, 7. प्रयोगमति संपदा, 8 परिज्ञा संपदा) सहित हैं / ऐसे आचार्य महाराज न्यायपक्षी, भद्रिक परिणामी, त्यागी, वैरागी, महागुणी, गुणानुरागी ऐसे श्री प्राचार्य जी महाराज अापकी दिवस एवं रात्रि संबंधी अविनय आशातना की हो तो बारम्बार मेरा अपराध क्षमा करिये। हाथ जोड़, मान मोड़, शीश नमाकर तिक्खुत्तो के पाठ से 1008 बार नमस्कार करता हूँ यावत् भव-भव सदा काल शरण हो / चौथे पद श्री उपाध्याय जी महाराज पच्चीस गुण करके सहित (ग्यारह अङ्ग, बारह उपांग चरणसत्तरी, करणसत्तरी इन से युक्त) हैं तथा अङ्ग-उपांग सूत्रों को मूल अर्थ सहित जाने / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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