Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 160
________________ [आवश्यक सूत्र दोय कोडि केवलधरा, विहरमान जिन बीस / सहस्र युगल कोडि नमू, साधु नमू निशदीश / / 2 / / धनसाधु, धनसाध्वी, धन-धन है जिनधर्म / ये समऱ्या पातक झरे, टूटे आठों कर्म / / 3 / / अरिहन्त सिद्ध समरू सदा, प्राचारज उपाध्याय / साधु सकल के चरण को, वन्दू शीश नवाय // 4 // शासननायक सुमरिये, भगवन्त वीर जिणंद / अलिय विघन दूरे हरे, आपे परमानन्द / / 5 / / अंगुष्ठे अमृत बसे, लब्धि तणा भण्डार / श्री गुरु गौतम सुमरिये, वंछित फल दातार / / 6 / / गुरु गोविन्द दोनों खड़े, किसके लागू पाय / / बलिहारी गुरुदेव की, गोविन्द दियो बताय // 7 / / लोभी गुरु तारे नहीं, तिरे सो तारणहार / जो तू तिरियो चाह तो, निर्लोभी गुरु धार / / 8 / / साध सती ने शरमा, ज्ञानी ने गजदन्त / इतना पीछा ना हटे, जो जुग जाय पडन्त / / 6 / / गुरु दीपक गुरु चांदणी, गुरु बिन घोर अन्धार / पलक न विसरू तुम भणी, गुरु मुझ प्राण प्राधार / / 10 / / क्षामरणासूत्र आयरिय-उवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुल-गणे य / जे मे केई कसाया, सम्वे तिविहेण खामेमि // 1 // सम्वस्स समणसंघस्स, भगवप्रो अंजलि करिअ सोसे / सव्वं खमावइत्ता, खमामि सम्वस्स अहयंपि // 2 // सव्वस्स जोवरोसिस्स, भावनो धम्मनिहियनियचित्तो। सब्वं खमावइत्ता, खमामि सव्यस्स. अहयंपि // 3 // (मरणसमाधि-प्रकीर्णक और संस्तारक-प्रकीर्णक) रागेण व दोसेण व, अहवा अकयण्णुणा पडिनिवेसेणं / जं मे किं चि वि भणि, तमहं तिविहेण खामेमि // 4 // भावार्थ प्राचार्य, उपाध्याय, शिष्य, सार्मिक, कुल और गण, इनके ऊपर मैंने जो कुछ कषाय किये हों, उन सब से मैं मन, वचन और काया से क्षमा चाहता हूँ // 1 // अलिबद्ध दोनों हाथ जोड़कर समस्त पूज्य मुनिगण से मैं अपराध की क्षमा चाहता हूँ और मैं भी उन्हें क्षमा करता हूँ // 2 // धर्म में चित्त को स्थिर करके सम्पूर्ण जीवों से मैं अपने अपराध की क्षमा चाहता हूँ और स्वयं भी उनके अपराध को क्षमा करता हूँ / / 3 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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