Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 162
________________ [आवश्यकसूत्र __ अपनी आत्मा के अभ्युदय का दृढ संकल्प रखने वाले साधक निश्चय ही मन को संयत बनाने में अर्थात् क्षमा करने में समर्थ होते हैं। भोगों के प्रलोभन उन्हें प्राकर्षित नहीं कर सकते, लालसाएँ उन्हें भावित नहीं कर पाती तथा भीषण विपत्तियां और संकट उन्हें व्याकुल नहीं कर सकते / संयत व्यक्ति के हृदय पर लोभ के आक्रमण-प्रहार बेअसर हो जाते हैं तथा क्रोध की अग्नि उसके क्षमासागर में आकर समाप्त हो जाती है। ऐसा पुरुष शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक सिद्धान्तों का समन्वय करके जिन-प्ररूपित नियमों के अनुसार साधना-रत रहता है / साधना-निरत व्यक्ति से कभी छद्मस्थ अवस्था के कारण जाने-अनजाने यदि भूल हो जाए तो वह तत्काल अपने अपराधों की सरल हृदय से क्षमायाचना कर लेता है / प्रतिक्रमण की परिसमाप्ति पर प्रस्तुत क्षमापना सूत्र का उच्चारण करते समय मनोयोग, वचनयोग और काययोग-इन तीनों का समन्वय होना आवश्यक है। जीवन को निष्कलुष और निर्मल बनाने के लिए विगत भूलों पर पश्चात्ताप करना आवश्यक है, किन्तु पश्चात्ताप यदि कोरा पश्चात्ताप ही रहे तो उससे कुछ भी लाभ नहीं होता। पश्चात्ताप होने पर भूल को सुधारने का मन में ध्र व संकल्प भी होना चाहिये और जो भूलें पहले हो चुकी हैं, उन्हें फिर न दोहराने का प्रयत्न करना चाहिये। तभी साधक का सच्चा क्षमापनासत्र जीवन-उत्थान में उपयोगी बन सकता है। इस क्षमायाचना से जीवन के अपराधी संस्कार समाप्त हो जाते हैं और जी का साम्राज्य स्थापित हो जाता है तथा हृदय में नवीन प्रकाश की किरणें स्फुटित हो जाती हैं। जैसे करोड़ों वर्षों से अन्धकाराच्छादित तामस गुफा में चक्रवर्ती का मणिरत्न (छह खण्ड की विजय करते समय) क्षण भर में लोक फैला देता है, इसी प्रकार क्षमा गुण से संयुक्त संयत के जीवन में आत्मज्ञान का प्रकाश प्रस्फुटित हो जाता है / चौरासी लाख जीवयोनि का पाठ सात लाख पृथ्वीकाय, सात लाख अप्काय, सात लाख तेजस्काय, सात लाख वायुकाय, दश लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय, चौदह लाख साधारण वनस्पतिकाय, दो लाख द्वीन्द्रिय, दो लाख ख त्रीन्द्रिय, दो लाख चतुरिन्द्रिय, चार लाख नारकी, चार लाख देवता, चार लाख तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय, चौदह लाख मनुष्य, ऐसे चार गति में चौरासी लाख जीवयोनि के सूक्ष्म-बादर, पर्याप्त-अपर्याप्त किसी जीव का . हालते-चालते, उठते-बैठते, जानते-अजानते हनन किया हो, कराया हो, हनता प्रति अनुमोदन किया हो, छेदा-भेदा हो, किलामणा उपजाई हो, मन, वचन, काया करके अठारह लाख चौबीस हजार एक सौ बीस (18,24,120)' प्रकारे तस्स मिच्छा मि दुक्कडं / / विवेचन-चार गति में जितने भी संसारी जीव हैं, उनकी चौरासी लाख योनियां हैं। योनि का अर्थ है—जीवों के उत्पन्न होने का स्थान। समस्त जीवों के 84 लाख प्रकार के उत्पत्ति-स्थान हैं। 1. जीव तत्त्व के 563 भेदों को अभियादि दशों के साथ गणाकार करने से 5630 भेद होते हैं / फिर इनको राग और द्वेष के साथ द्विगुण करने से 11260 भेद बनते हैं। फिर इन्ही को मन, वचन, काया के साथ त्रिगुणा करने से 33780 भेद हो जाते हैं। फिर तीन करणों के साथ गुणाकार करने से 101340 भेद बन जाते हैं, इनको पुनः तीन काल के साथ गुणाकार करने से 304020 भेद होते हैं। फिर अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, गुरु और आत्मा, इस प्रकार छह से गुणा करने पर 1824120 भेद बनते हैं / इस प्रकार से मैं मिक्छा मि दुक्कडं देता है और फिर पापकर्म न करने की प्रतिज्ञा करता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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