Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 156
________________ [आवश्यकसूत्र मस्तक पर हाथ जोड़कर "नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं" इस प्रकार बोलकर सिद्ध भगवान् को नमस्कार करे। तत्पश्चात् "नमोत्थुण अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपाविउकामाणं" ऐसा बोलकर वर्तमान काल में महाविदेह क्षेत्र में जो तीर्थकर विचर रहे हैं, उनको नमस्कार करे / फिर अपने धर्माचार्य जी महाराज को नमस्कार करे। साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका इस प्रकार चतुर्विध संघ से क्षमायाचना करे, पुनः समस्त जीवों से क्षमा मांगे। पहले धारण किये हुए व्रतों में जो अतिचार लगे हों उनकी आलोचना और निन्दा करे / सम्पूर्ण हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य (मैथुन) और परिग्रह--इन पांच पापों का तथा क्रोध, मान, माया, लोभ यावत् मिथ्यादर्शन शल्य प्रादि अठारह पापस्थानों का तथा सम्पूर्ण पापजन्य योग का तीन करण और तीन योग से त्याग करे। जीवनपर्यन्त चारों प्रकार के आहार का त्याग करे / इसके पश्चात जो अपना शरीर मनोज्ञ है. उस पर से ममत्व हटावे और संलेखना संबंधी पापों अतिचारों को दूर करके शुद्ध अनशन करे / इस प्रकार श्रद्धा और प्ररूपणा की शुद्धि के लिये नित्य पाठ करे और अन्तिम समय में स्पर्शना द्वारा शुद्ध हो। विशिष्ट शब्दों का अर्थ इस प्रकार है-इ8-इष्ट, इच्छानुकल / कंत-कमनीय / पियंप्रिय. प्यारा। मणणं मनोज्ञ, मनोहर / मणाम अत्यन्त मनोहर। धिज्जं धारण करने योग्य, धैर्यशाली। विसासियं-विश्वास करने योग्य / संमयं-सन्मान को प्राप्त / अणुमयं-विशेष सम्मान को प्राप्त, बहुमयं-बहुत सन्मान को प्राप्त / भण्डकरण्डगसमाणं-प्राभूषणों के करण्डक (डिब्बा) के समान / रयणकरण्डगभूयं-रत्नों के करण्डक के समान / मा णं सोयं-शीत (सर्दी) न हो। मा गं उण्हं-उष्णता (गर्मी) न हो। मा णं खुहा-भूख न लगे। मा गं पिवासा--प्यास न लगे। मा णं वाला सर्प न काटे / मा णं चोरा--चोरों का भय न हो / मा णं दंसमसगा-डांस और मच्छर न सतावें / मा णं वाहियं-व्याधियां न हों। पित्तियं पित्त / कफियं-कफ / संभीमं भयंकर। सन्निवाइयं सन्निपात / विविहा--अनेक प्रकार के रोगायंका-रोग और अातंक / परिसहा क्षुधा आदि का कष्ट / उवसग्गा-उपसर्ग (देव, तिर्यंच आदि द्वारा दिया गया कष्ट / ) फासा फुसन्तु–सम्बन्ध करें। चरमेहि--अन्त के। उस्सासनिस्सासेहि उच्छ्वासनिःश्वासों (श्वासोच्छ्वासों) से / वोसिरामि-त्याग करता हूँ। त्ति कटु-ऐसा करके / कालं प्रणवकंखमाणे-काल की आकांक्षा (वांछा) नहीं करता हुआ / विहरामि विहार करता हूँ, विचरण करता हूँ। इहलोगासंसप्पनोगे—इस लोक के चक्रवर्ती आदि के सुखों की इच्छा करना / परलोगासंसप्पनोगे-परलोक सम्बन्धी इन्द्र के सुखों की इच्छा करना। जीवियासंसप्पोगेजीवित रहने की इच्छा करना। मरणासंसप्पोगे-महिमा, पूजा न देखकर अथवा विशेष दुःख होने से मरने की इच्छा करना। कामभोगासंसप्यश्रोगे-कामभोगों की इच्छा करना / मा-मत / मज्झ–मेरे। हुज्ज-हो / मरणते वि—मृत्यु हो जाने पर भी / सट्टापरूवणम्मि–श्रद्धा प्ररूपणा में / अन्नहाभावो विपरीत भाव / पांचों पदों की वन्दना पहले पद श्री अरिहन्त भगवान् जघन्य बीस तीर्थकरजी, उत्कृष्ट एक सौ साठ तथा एक सौ सत्तर देवाधिदेवजी, उनमें वर्तमान काल में बीस विहरमान जी महाविदेह क्षेत्र में विचरते हैं / एक हजार आठ लक्षण के धरणहार, चौंतीस अतिशय, पैतीस वाणी करके विराजमान, चौसठ इन्द्रों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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