________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण] [77 'अन्नो जीवो अन्नं सरीरं' अर्थात् आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है। -सूत्रकृतांग सूत्र (2-1-6) शब्द, रूप, कामभोगादि जड़ पदार्थों से रहित आत्मा ही मोक्षगामी हो सकती है। जैनधर्म की यह दृढ मान्यता है कि हर एक आत्मा में महान् ज्योति जाज्वल्यमान है। प्रानन्द और अमर शान्ति का महासागर उसमें हिलोरें मार रहा है। प्रत्येक प्रसुप्त आत्मा का जब चैतन्य जाग उठता है तो वह प्रात्मा परमात्मा वीतराग एवं क्षुद्र से विराट और लधु से महान् बन जाती है / अन्त में परिनिर्वाण को प्राप्त हो जाती है। निर्वाण की प्रशस्ति नहीं हो सकती। वह ऐसे अनिर्वचनीय, अनुपम, असाधारण परमानन्द का स्थान है कि जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। सम्वदुक्खाणमंतं करेंति-श्रीमद् आचाराङ्गसूत्र में बतलाया है-हे गौतम ! मोक्ष के सुख का स्वरूप बतलाने के लिए कोई शब्द नहीं है। जैसे गूगा आदमी गुड़ के स्वाद को जानता है, लेकिन उसका वर्णन नहीं कर सकता; इसी प्रकार जो मुक्तात्मा जीव, जिन्हें निरंजन पद प्राप्त हुआ है, वे मोक्षसुख का अनुभव तो करते हैं, मगर उसे प्रकट करने के लिए उनके पास भी कोई शब्द नहीं है / निरंजन पद की प्राप्ति के बाद सभी दुःखों का अन्त हो जाता है। बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा जिसकी सेवा में खड़े रहते हैं और हाथ जोड़े आज्ञा का प्रतीक्षा करते रहते हैं, उस छह खण्ड के अधिपति चक्रवर्ती का सुख उत्तम है या मोक्ष का सुख उत्तम है ? अगर चक्रवर्ती का सुख उसम होता तो स्वयं चक्रवर्ती भी अखण्ड षट्खण्ड के महान साम्राज्य को ठोकर मार कर क्यों भिक्षुजीवन स्वीकार करते ? चक्रवर्ती स्वयं अपने सुख को मोक्ष-सुख की तुलना में तुच्छ, अति तुच्छ समझता है अर्थात् धर्माराधक साधक मोक्ष प्राप्त कर शारीरिक एवं मानसिक सब प्रकार के दुःखों का अन्त कर देता है। प्राचार्य जिनदास कहते हैं"सव्वेसि सारीर-माणसाणं दुक्खाणं अन्तकरा भवन्ति, वोच्छिण्णसव्वदुक्खा भवन्ति / " अर्थात् सिद्ध भगवान् समस्त शारीरिक और मानसिक दुःखों का अन्त करने वाले हैं, समस्त क्लेशों से मुक्त हो जाते हैं। . सद्दहामि—मैं श्रद्धा करता हूँ। श्रद्धा जीवननिर्माण का मूल है / श्रद्धा के बिना कोई भी मनुष्य इस संसार-सागर से पार हो जाए, यह संभव नहीं / व्यक्ति कितना भी विद्वान् हो, ज्ञानवान् हो, पण्डित हो, दार्शनिक हो किन्तु अगर उसमें सम्यक्त्व नहीं है, उसकी आत्मा के प्रति श्रद्धा नहीं है तो विविध भाषाओं का ज्ञान तथा अनेक प्रकार की कलाओं का अभ्यास भी उसे संसार-सागर से पार नहीं कर सकता। अतः श्रद्धा ही जीवन के लिए अमृत है / किसी भी साध्य की प्राप्ति दुर्लभ नहीं है, किन्तु श्रद्धा अथवा विश्वास दुर्लभ है "सद्धा परम दुल्लहा।" . -उत्तरा. सू. अ. 3 श्रद्धा के बिना मनुष्य अपने आपको भी नहीं पहचान सकता। श्रद्धा के बिना ज्ञान भी पंगु के सदृश हो जाता है। मेधावी तथा महान् वही होता है जिसकी रग-रग में श्रद्धा बसी हुई हो। ध्येय के प्रति एकनिष्ठ रहकर साधना करने से सफलता मिलती है। ध्येयसिद्धि में एकनिष्ठता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org