Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 138
________________ | (মাঘল गुरुदेव सम्बन्धी 33 पाशातनाओं का उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है / यहाँ अरिहन्तादि की तेतीस पाशातनाओं का निरूपण मूल पाठ में ही किया गया है / उनका अर्थ इस प्रकार है अरिहंताण प्रासायणाए---सूत्रोक्त तेतीस प्राशातनाओं में पहली अाशातना अरिहन्तों की है / अनन्तकाल से अन्धकार में भटकते हुए जीवों को सत्य का प्रकाश मूलत: अरिहन्त भगवान् ही दिखलाते हैं। वे ही धर्म का उपदेश करते हैं तथा सन्मार्ग का निरूपण करते हैं / अतः परमोपकारी अरिहन्तों की आशातना नहीं करनी चाहिये। यदि कोई कहे कि भारतवर्ष में तो अरिहन्त हैं ही नहीं, फिर उनकी आशातना कैसे हो सकती है ? समाधान है कि–'अरिहन्त की कोई सत्ता नहीं है / उन्होंने तो कठोर धर्म का उपदेश दिया है / वे वीतराग होते हुए भी स्वर्ण, सिंहासन आदि का उपयोग क्यों करते हैं ?' इत्यादि दुश्चिन्तन करना अरिहन्तों की आशातना है। सिद्धों की प्राशातना-'सिद्ध कोई होता ही नहीं है। जब शरीर ही नहीं रहा तो फिर अनन्तसुख कैसे मिल सकता है' आदि अवज्ञा करना सिद्धों की पाशातना है। प्राचार्य-उपाध्याय की आशातना-वह इस प्रकार है-—'ये बालक हैं, अकुलीन हैं, अल्पबुद्धि हैं, औरों को तो उपदेश देते पर स्वयं कुछ नहीं करते' इत्यादि / इसी प्रकार उपाध्याय की पाशातना समझनी चाहिये। साधुओं की प्राशातना-'कायर जन परिवार का पालन-पोषण न कर सकने के कारण गृह त्याग कर भीख मांगने का धंधा अख्तियार कर लेते हैं। गृहस्थों की कमाई पर गुलछरें उड़ाते हैं' इत्यादि कह कर साधुओं की निंदा करना उनकी आशातना है / साध्वियों को आशातना-स्त्री होने के कारण साध्वियों को नीचा बतलाना। उनको कलह और संघर्ष की जड़ कहना, इत्यादि रूप से अवहेलना करना साध्वियों की आशातना है। श्रावक-श्राविकाओं की आशातना-जैनधर्म अतीव उदार और विराट् धर्म है। यहां केवल अरिहन्त आदि महान् आत्माओं का ही गौरव नहीं है, अपितु साधारण गृहस्थ होते हुए भी जो स्त्रीपुरुष देशविरति धर्म का पालन करते हैं उन श्रावकों एवं श्राविकाओं की अवज्ञा करना भी पाप है / प्रत्येक प्राचार्य, उपाध्याय और साधु को भी प्रतिदिन प्रातः और सायंकाल प्रतिक्रमण के समय श्रावक एवं श्राविकारों के प्रति ज्ञात या अज्ञात रूप से की जाने वाली अवज्ञा के लिए पश्चात्ताप करना होता है। 'मिच्छा मि दक्कडं' देना होता है। जैनागमों में श्रावक-श्राविकाओं को 'अम्मापियरो' से उपमित किया गया है। जैनधर्म में गुणों को महत्त्व दिया है। वहां गुणों की पूजा होती है, न कि वेषभेद या लिंग आदि के भेद से किसी को ऊंचा या नीचा समझा जाता है। देवों-देवियों की आशातना-वह इस प्रकार है-देवता तो विषय-वासना में प्रासक्त, अप्रत्याख्यानी, अविरत हैं और शक्तिमान होते हुए भी शासन की उन्नति नहीं करते हैं, इत्यादि / इसी प्रकार देवियों की पाशातना समझना चाहिये। इहलोक और परलोक की आशातना इहलोक और परलोक का अभिप्राय इस प्रकार हैमनुष्य के लिए मनुष्य इहलोक है और नरक, तिर्यञ्च एवं देव परलोक है / इहलोक और परलोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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