________________ (चतुविशतिस्तव), 3. गुणवत् प्रतिपत्ति (गुरु-उपासना अथवा बन्दन), 4. स्खलितनिन्दना (प्रतिक्रमण-पिछले पापों की आलोचना), 5. जणचिकित्सा (कायोत्सर्ग-ध्यान-शरीर से ममत्व-त्याग) और 6, गुणधारण (प्रत्याख्यानआगे के लिये त्याग, नियमग्रहण प्रादि)। ज्ञानसार में प्राचार्य ने प्रावश्यक क्रिया का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए लिखा है-आवश्यकत्रिया पहले से प्राप्त भावविशुद्धि से आत्मा को गिरने नहीं देती। गुणों की वृद्धि के लिये और प्राप्त गुणों से स्खलित न होने के लिये प्रावश्यक क्रिया का प्राचरण बहुत उपयोगी है। आवश्यक क्रिया के आचरण से जीवन का उत्तरोत्तर विकास होता है। उसके जीवन में सद्गुणों का सागर ठाठे मारने लगता है। आवश्यक में जो साधना का क्रम रखा गया है, वह कार्य-कारण भाव की शृखला पर अवस्थित है तथा पूर्ण वैज्ञानिक है। साधक के लिये सर्वप्रथम समता को प्राप्त करना आवश्यक है। बिना समता को अपनाये सद्गुणों के सरस सुमन खिलते नहीं और अवगुणों के कांटे झड़ते नहीं। जब अन्तहदय में विषमभाव की ज्वालाएँ धधक रही हों तब वीतरागी महापुरुषों के गुणों का उत्कीर्तन किस प्रकार किया जा सकता है ? समत्व को जीवन में धारण करने वाला व्यक्ति ही महापुरुषों के गुणों का संकीर्तन करता है और उनके उदात्त गुणों को जीवन में उतारता है। इसीलिये सामायिक आवश्यक के पश्चात् चतुर्विशतिस्तव अावश्यक रखा गया है। जब गुणों को व्यक्ति हृदय में धारण करता है, तभी उसका सिर महापुरुषों के चरणों में झुकता है। भक्तिभावना से विभोर होकर वह उन्हें वन्दन करता है, इसीलिये तृतीय आवश्यक वन्दन है / वन्दन करने वाले साधक का हृदय सरल होता है, खुली पुस्तक की तरह उसके जीवन-पृष्ठों को प्रत्येक व्यक्ति पढ़ सकता है। सरल व्यक्ति ही कृत दोषों की आलोचना करता है, अत: वन्दन के पश्चात् प्रतिक्रमण आवश्यक का निरूपण है। भूलो को स्मरण कर उन भूलों से मुक्ति पाने के लिये तन एवं मन में स्थैर्य आवश्यक है। कायोत्सर्ग में तन और मन की एकाग्रता की जाती है और स्थिर वृत्ति का अभ्यास किया जाता है। जब तन और मन स्थिर होता है, तभी प्रत्याख्यान किया जा सकता है। मन डांवाडोल स्थिति में हो, तब प्रत्याख्यान सम्भव नहीं है। इसलिये प्रत्याख्यान आवश्यक का स्थान छठा रखा गया है। इस प्रकार यह षडावश्यक आत्मनिरीक्षण, प्रात्मपरीक्षण और आत्मोत्कर्ष का श्रेष्ठतम उपाय है। __ अनुयोगद्वार सूत्र में आवश्यक के दो विभाग प्राप्त हैं-द्रव्य-आवश्यक और भाव-आवश्यक है। द्रव्य आवश्यक में बिना चिन्तन, अन्यमनस्क भाव से पाठों का केवल उच्चारण किया जाता है। जो पाठ बोला जा रहा है-उस पाठ में मन न लगकर इधर-उधर भटकता रहता है / द्रव्य-पावश्यक में केवल बाह्य क्रिया चलती है, उपयोग के अभाव से उस क्रिया से आन्तरिक तेज प्रकट नहीं होता। वह प्राणरहित साधना है। भाव-आवश्यक में साधक उपयोग के साथ क्रिया करता है। उस क्रिया के साथ उसका मन, उसका वचन, उसका तन पूर्ण रूप से एकाग्र होता है। वह एकलय और एकतानता के साथ साधना करता है। जब द्रव्य-आवश्यक के साथ भाव-यावश्यक का सुमेल होता है तो द्रव्य-प्रावश्यक एक तेजस्वी आवश्यक बन जाता है। यही कारण है कि शास्त्रकारों ने भाव-यावश्यक को अत्यधिक महत्त्व दिया है। भाव-आवश्यक लोकोत्तर साधना है और उस साधना का फल मोक्ष है। 14. जणं इमे समणी वा समणी वा सावनो वा सविया वा तच्चित्त, तम्मणे, तल्लेसे, तदभवसिए, तत्तिब्व जभवसाणे, तददोषउत्ते, तदप्पिययकरणे, तब्भावणाभाविए, अन्नत्थ कत्थई मणं अकरेमाणे उभोकालं मावस्सयं करेंति से तं लोगुत्तरियं भावावस्सयं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org