________________ आवश्यक सूत्र है"। दूसरे शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि जो प्रशस्त गुणों से प्रात्मा को सम्पन्न करता है, वह प्रावासक/प्रावश्यक जैन साधना का प्राण है। वह जीवनशुद्धि और दोषपरिमार्जन का जीवन्त भाष्य है। साधक चाहे साक्षर हो चाहे निरक्षर हो, चाहे सामान्य जिज्ञासु हो या प्रतापपूर्ण प्रतिभा का धनी कोई मूर्धन्य मनीषो; सभी साधकों के लिये आवश्यक का ज्ञान आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। आवश्यकसूत्र के परिज्ञान से साधक अपनी आत्मा को निरखता है, परखता है। जैसे वैदिक परम्परा में सन्ध्याकर्म है, बौद्ध परम्परा में उपासना है, पारसियों में खोर देह अवेस्ता है, यहदी और ईसाईयों में प्रार्थना है, इस्लाम धर्म में नमाज है, वैसे हो जैनधर्म में दोषों की विशुद्धि के लिये और गुणों की अभिवृद्धि के लिये आवश्यक है। आवश्यक जैन साधना का मुख्य अंग है। वह आध्यात्मिक समता, नम्रता, प्रभृति सद्गुणों का आधार है। अन्तई ष्टिसम्पन्न साधक का लक्ष्य बाह्य पदार्थ नहीं, आत्मशोधन है। जिस साधना और आराधना से प्रात्मा शाश्वत सुख का अनुभव करे, कर्म-मल को नष्ट कर सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र से अध्यात्म के पालोक को प्राप्त करे, वह आवश्यक है। अपनी भूलों को निहार कर उन भूलों के परिष्कार के लिये कुछ न कुछ क्रिया करना आवश्यक है / आवश्यक का विधान श्रमण हो या श्रमणी हो, श्रावक हो या श्राविका हो-मभी के लिये है। अनुयोगद्वारसूत्र में आवश्यक के पाठ पर्यायवाची नाम दिये हैं-आवश्यक, अवश्यकरणीय, ध्र बनिग्रह, विशोधि, अध्ययनषट्कवर्ग, न्याय, आराधना और मार्ग। इन नामों में किंचित् अर्थभेद होने पर भी सभी नाम समान अर्थ को ही व्यक्त करते हैं। प्रथम और अन्तिम तीर्थकर के श्रमणों के लिये यह नियम है कि वे अनिवार्य रूप से आवश्यक करें। यदि श्रमण और श्रमणियां आवश्यक नहीं करते हैं तो श्रमणधर्म से च्यूत हो जाते हैं। यदि जीवन में दोष की कालिमा लगी है तो भी और नहीं लगी है तो भी आवश्यक अवश्य करना चाहिये। प्रावश्यकनियुक्ति में स्पष्ट रूप से लिखा है कि प्रथम और चरम तीर्थंकरों के शासन में प्रतिक्रमण सहित धर्म प्ररूपित किया गया है। 3 श्रावकों के लिये भी आवश्यक की जानकारी आवश्यक मानी गई है। यही कारण है कि श्वेताम्बर परम्परा में वालकों के धार्मिक अध्ययन का प्रारम्भ आवश्यकसूत्र से ही कराया जाता है। आवश्यकसूत्र के छह अंग हैं 1. सामायिक-समभाव की साधना, 2. चतुर्विशतिस्तव-चौबीस तीर्थकर देवों की स्तुति / 3. बन्दन सद्गुरुषों को नमस्कार, उनका गुणगान, 4. प्रतिक्रमण-दोषों की आलोचना, 5. कायोत्सर्ग-शरीर के प्रति ममत्वका त्याग, 6. प्रत्याख्यान-पाहार आदि का त्याग / अनुयोगद्वार में इनके नाम इस प्रकार दिये गये हैं---१. सावद्य योगविरति (सामायिक), 2. उत्कीर्तन 11. समग्रस्यापि गुणग्रामस्यावासकमित्यावासकम् / –अनुयोगद्वार मलधारीय टीका, पृष्ठ 28 12. समणेण सावएण य, अबस्स कायव्वयं हवइ जम्हा / अन्ते अहो-निसस्स य, तम्हा आवस्सयं नाम // आवश्यकवृत्ति, गाथा 2, पृष्ठ 53 13. सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स / मज्झिमयाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं // आवश्यक नियुत्ति, गाथा 1244 [ 17 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org