________________ कालास्यवेसी अनगार ने स्पष्ट रूप से कहा, "मात्मा ही सामायिक है और आत्मा ही सामायिक का अर्थ है।" तात्पर्य यह है कि जब आत्मा पापमय व्यापारों का परित्याग कर समभाव में अवस्थित होता है, तब सामायिक होती है / आत्मा का काषायिक विकारों से अलग होकर स्वस्वरूप में रमण करना ही सामायिक है और वही प्रात्म-परिणति है। सामायिक में साधक बाह्य दृष्टि का परित्याग कर अन्तई ष्टि को अपनाता है, विषमभाव का परित्याग कर समभाव में अवस्थित रहता है, पर पदार्थों से ममत्व हटाकर निजभाव में स्थित होता है / जैसे अनन्त आकाश विश्व के चराचर प्राणियों के लिये आधारभूत है, वैसे ही सामायिकसाधना आध्यात्मिक साधना के लिये आधारभूत है। सामायिक के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए विविध दृष्टियों से सामायिक को प्रतिपादित किया गया है / नाम, स्थापना, द्रव्य, काल, क्षेत्र और भाव आदि से उसका स्वरूप प्रतिपादित है। सामायिक करने वाला साधक साधना में इतना स्थिर होता है कि चाहे शुभ नाम हों, चाहे अशुभ नाम हों, उस नाम का उस साधक के अन्तर्मानस पर कोई असर नहीं होता। वह सोचता है कि आत्मा प्रनामी है, आत्मा का कोई नाम नहीं है, नाम प्रस्तुत शरीर का है, यह शरीर नामकर्म की रचना है। इसलिये मैं व्यर्थ ही क्यों संकल्प-विकल्प करूं / सामायिक का साधक चित्ताकर्षक वस्तु को निहार कर पाहादित नहीं होता तो घिनौने रूप को देखकर घृणा भी नहीं करता। वह तो सोचता है कि प्रात्मा रूपातीत है। सूरूपता और कुरूपता तो पुद्गल परमाणुओ का परिणमन है, जो कभी शुभ होता है तो कभी अशुभ होता है। मैं पदगल तत्त्व से पथक है चिन्तन कर समभाव में रहता है। यह स्थापना सामायिक है। सामायिक व्रतधारी साधक पदार्थों की सुन्दरता को देखकर मुग्ध नहीं होता और असुन्दरता को देखकर खिन्न नहीं होता। इसी तरह बहुमूल्य वस्तु को देखकर प्रसन्न नहीं होता और अल्पमूल्य बाली वस्तु को देखकर खिन्न नहीं होता। वह चिन्तन करता है कि पदार्थों की सुन्दरता और असुन्दरता की कल्पना मानव की कल्पना मात्र है। एक ही वस्तु एक व्यक्ति को सुन्दर प्रतीत होती है तो दूसरे को वह सुन्दर प्रतीत नहीं होती। हीरे-पन्ने, माणक-मोती प्रादि जवाहरात में भी मानव ने मूल्य की कल्पना की है, अन्यथा तो वे अन्य पत्थरों की भांति पत्थर ही हैं। ऐसा विचार कर साधक सभी भौतिक पदार्थों में समभाव रखता है। यह द्रव्य-सामायिक है। ग्रीष्म की चिलचिलाती धूप हो, पौष माह की भयंकर सनसनाती सर्दी हो, श्रावण, भाद्रपद की हजार-हजार धारा के रूप में वर्षा हो अथवा रिमझिमरिमझिम बूदें गिर रही हों, चाहे अनुकल समय हो, चाहे प्रतिकल समय हो, सामायिक व्रतधारी साधक समभाव में विचरण करता है / शीत, उष्ण आदि स्पर्श पुद्गल के हैं और ये सारे पुद्गल, पुद्गल को ही प्रभावित करते हैं। मैं तो आत्मस्वरूप हूँ, किसी भी पर स्पर्श का कोई प्रभाव नहीं हो सकता / मुझे इन वैभाविक स्थितियों से दूर रहकर आत्मभाव में स्थित रहना है / यह काल-सामायिक है। सामायिकनिष्ठ साधक के लिये चाहे रमणीय स्थान हो, चाहे अरमणीय, चाहे सुन्दर सुगन्धित उपवन हो, चाहे बंजर भूमि हो, चाहे विराट नगर की उच्च अट्टालिका हो, या निर्जन वन की कंटीली भूमि हो, कोई फर्क नहीं पड़ता / वह सर्वत्र समभाव में रहता है। उसका चिन्तन चलता है कि मेरा निवासस्थान न जंगल है, न नगर, मेरा तो निवासस्थान आत्मा ही है, फिर व्यर्थ ही क्षेत्र के व्यामोह में पड़कर क्यों कर्मबन्धन करू? प्रत्येक पदार्थ अपने स्वभाव में स्थित रहता है तो मुझे भी आत्म-भाव में स्थिर रहना है, यह क्षेत्र-सामायिक है। भाव-सामायिकधारी का चिन्तन ऊर्वमुखी होता है। वह सदा-सर्वदा प्रात्म-भाव में विचरण करता है। उसका चिन्तन चलता है-"मैं अजर और अमर है, चैतन्यस्वरूप है, जीवन-मरण, मान-अपमान, संयोग [22] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org