________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिकमण] एवं प्रतिलेखना पर श्रद्धा न रखना तथा इस सम्बन्ध में मिथ्या प्ररूपणा करना, या उचित विधि से न करना आदि स्वाध्याय एवं प्रतिलेखन रूप अतिचार-दोष हैं। यह काल-प्रतिलेखना सूत्र स्वाध्याय तथा प्रतिलेखन करने के बाद पढ़ना चाहिये / प्रस्तुत पाठ में आये हुए अतिक्रम आदि का अर्थ इस प्रकार है१. अतिक्रम-गृहीत व्रत या प्रतिज्ञा को भंग करने का विचार करना। 2. व्यतिक्रम-व्रतभंग के लिए उद्यत होना। 3. अतिचार-आंशिक रूप से व्रत को खंडित करना / 4. अनाचार-व्रत को पूर्ण रूप से भंग करना। तेतीस बोल का पाठ पडिक्कमामि एगविहे असंजमे / पडिक्कमामि दोहि बंधणेहि-रागबंधणेणं, दोस-बंधणेणं / पडिक्कमामि तिहि दंडेहि-मणदंडेणं, वयदंडेणं, कायदंडेणं / पडिक्कमामि तिहि गुत्तीहि-मणगुत्तीए, वयगुत्तीय, कायगुत्तीए। पडिक्कमामि तिहि सल्लेहि-मायासल्लेणं, नियाणसल्लेणं, मिच्छादसणसल्लेणं / पडिक्कमामि तिहिं गारवेहि-इड्ढीगारवेणं, रसगारवेणं, सायागारवेणं / पडिक्कमामि तिहि विराहणाहि-नाणविराहणाए, दंसविराहणाए, चरित्तविराहणाए। भावार्थ-अविरति रूप एकविध असंयम का आचरण करने से जो भी अतिचार-दोष लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ। दो प्रकार के बन्धनों से लगे दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ, अर्थात् उनसे पीछे हटता हूँ। दो प्रकार के बन्धन हैं—१. रागबन्धन एवं 2. द्वेषबन्धन / तीन प्रकार के दण्डों से लगे दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ / तीन दण्ड– 1. मनोदण्ड, 2. वचन-दण्ड एवं 3. कायदण्ड / तीन प्रकार की गुप्तियों से अर्थात् उनका आचरण करते हुए प्रमादवश जो भी गुप्तियों सम्बन्धी विपरीताचरणरूप दोष लगे हों, उनका प्रतिक्रमण करता हूँ। तीन गुप्ति-मनोगुप्ति, बचनगुप्ति एवं कायगुप्ति / तीन प्रकार के शल्यों से होने वाले दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ। तीन शल्य-मायाशल्य, निदान-शल्य और मिथ्या-दर्शन-शल्य / ___ तीन प्रकार के गौरव-अभिमान से लगने वाले दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ। तीन गौरव--१. प्राचार्य आदि पद की प्राप्ति रूप ऋद्धि का अहंकार ऋद्धि-गौरव / 2. मधुर आदि रस की प्राप्ति का अभिमान रस-गौरव तथा 3. साता-गौरव-साता का अर्थ है आरोग्य एवं शरीरिक सुख / प्रारोग्य, शारीरिक सुख तथा वस्त्र, पात्र शयनासन आदि सुख-साधनों के मिलने पर अभिमान करना और न मिलने पर उनकी आकांक्षा करना साता-गौरव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org