Book Title: Agam 02 Suyagado Angsutt 02 Moolam
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
३६
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सूर्यगणे १/१२/-/५५५
(५५५) अहो वि सत्ताण विउट्टणं च नो आसवं जाणति संवरं च
दुक्खं च जो जाणइ निजरं च सो मासिउमरिहति किरियवादं ॥५५५॥ -21 (५५६) सद्देसु रूवेसु असज्रमाणे रसेसु गंधेसु अदुस्समाणे
नो जीवियं नो मरणाभिकंखे आयाणगुत्ते वलया विमुक्के- त्ति बेमि ॥५५६ ॥ - 22 ● भारत अायणं समतं
तेरसमं अज्झयणं- आहत्तहीयं
(५५७) आहत्तहीयं तु पवेयइस्स नागप्पगारं पुरिसस्स जातं
सतोय धम्मं असतो य सीलं संति असंति करिस्सामि पाउं ॥५५७-1 (५५८) अहो य रातो य समुट्ठितेहिं तहागतेहिं पडिलब्म धम्म समाहिमाधातमजोसयंता सत्यारमेव फरुसं वयंति (५५९) विसोहियं ते अणुकाहयंते जे या SSतभावेण वियागरेज्जा अट्ठाणिए होइ बहूगुणाणं जे नाणसंकाए मुसं वदेज्जा (५६०) जे यावि पुट्ठा पलिउंचयंति आदाणमट्ठ खलु वचयंति असाहुणी ते इह साहुमाणी मायणिएहिंति अनंतधातं (५६१) जे कोहणे होइ जगतट्ठभासी विओसितं जे य उदीरएजा अद्धे व से दंडप गहाय अदिओसिते घासति पावकम्मी (५६२ ) जे विग्गहिए अन्नायमासी न से समे होइ अझंझपत्ते
ओवायकारी य हिरीमणे य एतदिट्ठी य अमाइरूवे (५६३) से पेसले सुहमे पुरिसजाते जण्णिते चैव सुउजुयारे
बहुं पि अणुसासिए जे तहची समे हु से होइ अझंझपत्ते (५६४) जे यावि अप्पं वसुमं ति मंता संखाय वायं अपरिच्छ कुजा तवेण वाहं अहिए ति मंता अन्नं जणं पस्सति बिंबभूतं (५६५) एगंतकूडेण तु से पलेइ न विजई मोणपदंसि गोते
For Private And Personal Use Only
1144611-2
||५५९॥-3
||५६०|-4
1146911-5
॥५६२॥1-6
||५६३॥-7
||५६४॥-8
॥५६६।। 10
जे माणणट्ठेण विउकलेजा वसुमण्णतरेण अबुज्झमाणे (५६६ ) जे माहणे खत्तिए जाइए वा तहुग्गपुत्ते तह लेच्छवी वा जे पव्इए परदत्तभोई गोतेण जे यम्मति माणदद्धे (५६७) न तस्स जाती व कुलं व ताणं नन्नत्य विद्याचरणं सुचिष्णं निक्खम्भ से सेवइऽगारिकम्पं न से पारए होति विमोयणा ||५६७॥ - 11 (५६८) निकिकंचणे भिक्खु सुलूहजीवी जे गारवं होइ सिलोगगामी आजीवमेयं तु अबुज्झमाणो पुणो- पुणो विष्परियासुवेति (५६१) जे भासवं भिक्खु सुसाहुवादी पडिहाणवं होइ विसारए य
आगाढपणे सु-मावियप्पा अन्नं जणं पण्णसा पुरिहवेज्जा ॥५६९ || - 13 (५७०) एवं न से होति समाहिपत्ते जे पण्णसा भिक्खु विउकसे जा
अहवा वि जे लाभपदावलित्ते अन्नं जणं खिसति वालपणे ॥५७०11-14
॥५६५॥१-७
।।५६८।1-12

Page Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122