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॥ श्रीआचाराङ्ग प्रदीपिका ॥
यह आचार्य सैद्धान्तिक विद्वान थे । आचारांगसूत्र जैन-संस्कृति का प्राण है, शीलांकाचार्य ने सूत्र को सर्वगम्य बनाने हेतु वृत्ति निर्मित की थी। कालान्तर में बौद्धिक ह्रास से वह भी दुर्बोध हो चली थी । आचार्य ने इस पर सं.१५७३ में लूणकर्ण राज्य-बीकानेर दीपिका टीका का निर्माण किया। देवतिलक, दयासागर और भक्तिलाभ' ने संशोधनादि में सहायता की।
स्व. मोहनलाल देसाईने अपने जैन साहित्य के इतिहास (पृष्ठ ५१६) में इस दीपिका का प्रणयन काल सं. १५८२ माना है और नाहटा-बन्धुओने स्वसम्पादित लेख-संग्रह में इसका अनुकरण किया है। ग्रन्थकार स्वयं रचनाकाल का उल्लेख कर रहे हैं, यथा - . श्रीलूणकर्णराज्ये मन्त्रीकर्मसिंहसंघपतौ श्रीमद्विक्रमनगरे गुण-मुनि-शर-चन्द्रमितवर्षे (१५७३) ॥
इनका शिष्य परिवार भी विद्वद्भोग्य साहित्य-प्रणेता था । जिनभद्रसूरि के ज्ञानमूलक अभियान को इस युग में बल मिला । अभयदेवसूरि और मलयगिरि महाराज की वृत्तियों का परिशीलन कर जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति पर पुण्यसागरोपाध्याय ने जैसलमेर शासक भीम के समय में वृत्ति निर्मित की जिसका प्रथमादर्श ज्ञानतिलक जैसे सारस्वत ने तैयार किया । इस उपाध्याय की अन्य रचनाओं के लिए नाहटा लिखित युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि दृष्टव्य है । जिनहंससूरि के समय की दूसरी महत्वपूर्ण और सर्वमान्य रचना है, दण्डकप्रकरण । इसके प्रणेता हैं आचार्य-शिष्य धवलचन्द्रमुनि के शिष्य गजसारमुनि । इस पर उनने सं. १५७९ में पत्तन में चूर्णि भी लिखी।
१. यह मुनिवर विद्वान, ग्रन्थशोधक और सुलेखक थे, इनके हाथ के लिखे पंचपाठ मेरे संग्रह में है। २. साहाय्यमत्र चक्रुः श्री पाठकदेवतिलकनामानः । दक्षा: शिष्याः वाग्गुरुसुगुरुदयासागरेन्द्राणाम् ।। गीतार्थशिरोमणिभिः श्रीपाठकभक्तिलाभमुख्यैः । संशोधिता तथापि च यदत्र दुष्टं विशोध्यं तत् ।।