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तत्त्व को तथा देव-गुरु-धर्मादि के स्वरूप को उसी अर्थ एवं स्वरूप में देखेगा, जानेगा व मानेगा, जिस स्वरूप में जीवादि तत्त्व या देव-गुरु-धर्मादि हैं । तत्त्व पदार्थ के यथार्थ वास्तविक स्वरूप से सम्यक्त्वी के देखने, जानने, मानने एवं कहने में विषमता कभी भी नहीं आएगी। हमेशा सुसंगतता एवं सुसंवादिता ही रहेगी, क्योंकि तत्त्व-पदार्थ का जैसा वास्तव में स्वरूप है, उसे सम्यक्त्वी तनिक भी परिवर्तन किए बिना वैसा यथार्थ ही मानता है, जानता है और देखता है । अतः कथन भी वैसा यथार्थ वास्तविक ही करेगा। विपरीत प्ररूपणा मिथ्यात्वी कर सकता है, सम्यक्त्वी कदापि नहीं कर सकता है। • देव-गुरु-धर्म का सही स्वरूप
या देवे देवता बुद्धि गुरौ च गुरुतामतिः ।
धर्मे धर्म धीर्यस्य सम्यक्त्वं तदुदीरितम्॥ वास्तव में जो देव-देवाधिदेव भगवान है, उनमें ही भगवानपने की, देवपने की बुद्धि रखें तथा वास्तव में सही अर्थ में जो कंचन-कामिनी के त्यागी, पंच महाव्रतधारी, संसार के त्यागी साधु-मुनि महात्मा है, उनमें ही गुरुपने की बुद्धि रखें तथा जो सर्वज्ञ कथित (सर्वज्ञोपदिष्ट) धर्म है, उसमें ही धर्म बुद्धि रखें उसे सम्यक्त्वी कहते हैं। .
" भगवान का जो सर्वज्ञ-वीतरागी स्वरूप पहले कहा जा चुका है, उसी में भगवानपने की सम्यग् बुद्धि रखनी, उसी तरह गुरु से भी जो सच्चे गुरु है उनमें ही गुरुपने की यथार्थ सम्यग् बुद्धि रखनी, अर्थात् जो सर्वज्ञ, वीतरागी भगवान के बताये हुए मार्ग पर चलते हैं उन्हें ही गुरुबुद्धि से गुरुपने के रूप में मानना यही सच्ची सम्यक् मान्यता है । ठीक इसी तरह धर्म भी कौनसा? और कैसा मानें ? इस विषय में भी मात्र ऐसे लोकोत्तर आप्त महापुरुष जो सर्वज्ञ वीतरागी भगवान हैं, उन्हीं के द्वारा कहे गए सर्वज्ञोपदिष्ट मार्ग को धर्म मानना इसी में सम्यक्त्व है। ...... इस तरह सम्यक्त्व की समझ-सम्पूर्ण दृष्टि वृत्ति आदि सत्य की तरफ होती है। वह प्रत्येक बात में सत्य स्वरूप को ही जानने, देखने, मानने का आग्रह रखता है । अतः सम्यक्त्वी, सत्यान्वेषी, सत्य का आग्रही होता है । ऐसे सम्यक्त्व में जीवादि नौ तत्त्व हैं, उन्हें भी उसी रूप-स्वरूप में मानना-स्वीकारना होता है। . ऐसा नहीं होता कि पदार्थ का स्वरूप कुछ और ही है और उसे जानने में हम कुछ और ही जान रहे हैं या विपरीत जान रहे हैं। तो वह सम्यक्त्व न होकर मिथ्यास्वरूप होगा।
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· आध्यात्मिक विकास यात्रा