Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 568
________________ है । भौतिक है । पौगलिक है । पराधीन है । वह तो जन्म-जरावस्था, मृत्यु और शोक को बढानेवाला-वर्धक है । तथा पुष्कल-विपुल भी नहीं सीमित, परिमित और मर्यादित है। तथा कल्याणकारी भी नहीं, अकल्याणकारी-अहितकारी है। तथा संसार के ही त्यागी-तपस्वियों द्वारा त्यक्त है । पूजित नहीं है । अतः संसार के सुख की कामना करने की अपेक्षा आत्मा के शाश्वत मोक्ष सुख की आकांक्षा साधक को करनी चाहिए। वही श्रेयस्कर है। ऐसे सुख का दाता-श्रुतधर्म है। अतः ऐसा श्रुतधर्म जिसकी देवता-दानव-नरेन्द्र इन सबके समूह समुदाय ने भी पूजा की है, माना है, स्वीकारा है, अतः ऐसे श्रुतधर्म को प्राप्त कर कौन प्रमाद करेगा? क्या प्रमाद करना उचित है? जी नहीं। किसी भी स्थिति में प्रमाद करना उचित नहीं है । अतः अप्रमत्तभाव ही कल्याणकारी है । प्रमाद का त्याग करने तथा अप्रमत्तभाव का आचरण करने के लिए महत्व बताते हुए यह बात इस श्लोक में प्रेरक-प्रेरणा जगाने के लिए कही है। यह स्पष्ट रूप से ध्यान में लेकर साधक को भोगों का, मोह की साधन सामग्रियों का, एवं प्रमाद भाव का त्याग करके अपनी आत्मा का विकास साधते हुए गुणश्रेणी पर आगे बढना ही चाहिए । इसी में उसका भला है । यही श्रेयस्कर मार्ग है। ॥ प्रमादं त्यक्त्वा अप्रमत्तं भवतु सर्वेषाम् ॥ . अप्रमत्तभावपूर्वक “ध्यानसाधना" ९७३

Loading...

Page Navigation
1 ... 566 567 568 569 570