Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 567
________________ जीव नरकादि की भारी दुःखरूप सजा भोगकर आया है वह पुनः क्यों ऐसे दुःखकारक, क्षणिक सुख की लालसा के कारण दीर्घ पापकर्म बंधानेवाले भोगों को भोगेगा? इन विषयभोगों को भुगतने के कारण ही जीव अपने उच्चस्तर से नीचे गिरकर निम्नस्तर पर उतर गया। अपने आत्मभाव की रमणता में कितना ऊपर उठ चुका था? और अब पुनः नीचे उतरना । अरेरे ! क्यों यह पतन करना? कल्याणमंदिर स्तोत्र में पू. सिद्धसेन दिवाकर सूरि म. इस अवस्था का स्वरूप प्रकट करते हुए कहते हैं कि ध्यानाज्जिनेश भवतो भविनः क्षणेन । देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति। ध्यान में स्थिर रहकर जो देहभाव को भूलकर परमात्म दशा की तरफ अग्रसर होता है वह साधक... कहाँ पहुँचेगा? सोचिए । अतः ध्यान ऐसी भूमिका है कि जिसमें जीव देहभाव, देहरागादि भावों को भूल जाता है । उससे ऊपर उठ जाता है । ऐसा ध्यान होना चाहिए। ऐसे ध्यान को ध्यान कहा है। यहाँ पर देहभाव, देहराग, देहाध्यास की वृत्ति जो जीव को पुनः पुनः भोग-उपभोग की साधन सामग्रियों से जनित सुख की तरफ आकर्षित करती है । अतः साधक को चाहिए कि आत्म साधना की ऊँची कक्षा तक पहुँचने के पश्चात् पुनः निम्नस्तर के सुख भोगने का विचार तक न करें। अतः महान ज्ञानी महापुरुषों ने जो त्याग कराया, सिखाया है ,वही ज्यादा उपयोगी और उपकारी है । अतः मोह के विषयों का त्याग तथा त्याग से अप्रमत्त भाव की साधना करनी ही चाहिए। आखिर प्रमाद क्यों? जाइ-जरा-मरण-सोग पणासणस्स। कल्लाण-पुक्खल-विसाल सुहावहस्स। को देव दाणव नरिन्द गणच्चीअस्स, धम्मस्स सारमुवलब्म करे पमायं? ॥ द्वादशांगी के इस पुक्खरवरदीवड्डे श्रुतस्तव सूत्र की उपरोक्त गाथा में श्रुतज्ञान,आत्मा के लिए उपयोगी एवं उपकारी ज्ञान की प्राप्ति हो जाय उसके बाद क्या प्रमाद करना चाहिए? यह श्रुतधर्म कैसा है? जो जन्म जरावस्था, मृत्यु तथा शोक का नाशक है, पुष्कल-प्रमाण में कल्याणकारी-विशाल सुख को देनेवाला-दायक है । संसार का सुख ठीक इससे विपरीत प्रकार का है। संसार का सुख क्षणिक एवं नाशवंत, अल्पकालिक ९७२ आध्यात्मिक विकास यात्रा

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