Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 519
________________ तत्पश्चात् आयुष्यकर्म अपनी तरफ से कुछ वर्षों का काल प्रदान करता है। अतः उस काल की दीर्घता-न्यूनता का आधार जीव द्वारा उपार्जित कषायादि की तीव्रता-मन्दता के आधार पर रहता है । जिसके कारण जीव गति उपार्जन करता है उसके आधार पर आयुष्य की स्थिति का आधार रहता है। . ___मोहनीय कर्म के ही उदय के कारण होनेवाली १८ पाप कर्म की प्रवृत्तियों से पुनः मोहनीय कर्म का बंध तो होगा ही। होता ही है । इसी प्रकार की हिंसादि पापों के कारण तथा कषायादि पापों की प्रवृत्ति के कारण ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय कर्मों का बंध भी होता ही है। जैसा कि आपने सुना ही है वरदत्त-गुणमंज़री का कथानक । जिसमें इन दोनों पति-पलियों के बीच पूर्व भव में बच्चों को स्कूल में शिक्षक के मारने के कारण काफी झगडा बढ गया। झगडा यह १२ वाँ कलह पापस्थान है । इस कलह में फिर १३ वाँ इस से फिर क्रोध-मानादि कषायों ने गाली देना शुरु कर दिया। फिर क्रोधादि की तीव्रता बढते ही साथ में स्त्री पक्ष से माया कंपटपूर्वक झूठ-असत्य का १७ वाँ माया मृषावाद नामक पापस्थान साथ देने लगा। बस, अन्त में पहला पापस्थान हिंसा का आ गया। उसने मार-पीट कराके पति के हाथ पत्नी का सिर फोडकर हत्या कर दी। इतने पापों ने मिलकर मोहनीय कर्म तो उपार्जन कराया ही कराया लेकिन साथ ही साथ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय कर्म इतने ज्यादा भारी उपार्जन कराए कि... उसके उदय के कारण गापन–बहरापन अंधापन-तुतलानापनादि मूर्खतादि अनेक प्रकार की स्थिति खडी हो गई । अविनय-अनादर-अपमानादि ज्ञान तथा ज्ञानियों का किया जाय तो उसके आधार पर भारी ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय कर्म भी बंधते हैं। इस तरह प्रवृत्ति १८ पापों की तथा उदय मोहनीय कर्म का और उससे पनः बंध आठों ही कर्मों का होता है। बस, इस तरह पुनः कर्म पुनः पाप फिर पुनः कर्म और फिर पाप यह संसारचक्र अनादि अनन्त काल तक चलता ही रहता है। इसका अन्त हीं कहाँ है ? प्रमाद से पुनः पाप और पाप से पुनः प्रमाद- .. यों तो १८ पापस्थान प्रमाद की प्रवृत्ति हैं । यहाँ प्रमाद आत्मिक है । मात्र कायिक ही नहीं । अपितु मानसिक वाचिक कायिक त्रयात्मक प्रमाद है । लेकिन यह प्रमाद भी बाह्य है। जबकि आत्मा के अंतर्गत जो उपयोगभाव की अस्थिरता, जागृति का अभाव भी प्रमाद ही है । जैसे ही आत्मा अपने ज्ञान से नीचे उतरी नहीं कि १८ पापस्थान तैयार ही बैठे हैं । जैसे पेड पर लटकते मनुष्य के हाथ डाली की पक्कड से छूटे नहीं कि नीचे ९२४ आध्यात्मिक विकास यात्रा

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