Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 542
________________ कषायजनित है इसलिए ६ अविरति और ६ अव्रत इन दोनों को मिलाकर १२ भेद अविरति के होते हैं। ३) तीसरे विभाग नोकषाय मोहनीय कर्म में जो हास्य-रति-अरति आदि के स्वभाव हैं उसी पर काम आते हैं ये । अतः वैसे भी नोकषाय मोहनीय आत्मा का स्वभाव बनाता है । इसके कारण हँसना, रोना, भयभीत बनना आदि का स्वभाव नोकषाय मोहनीय कर्म के कारण बन जाता है । अब जब आत्मा स्व-स्वभाव छोडकर जब हास्यादि के आधीन हो जाती है, तब प्रमादवश ही होता है । उसे ही प्रमाद कहते हैं। इसलिए प्रमाद बंधहेतु बनकर उपस्थित हो जाता है। __ या फिर प्रमाद का मूल कषायों में समावेश करें तो भी मूल कषायों में ही प्रमाद गिना जा सकता है। इसलिए प्रमाद से दूर रहो ही नहीं तो पुनः कषायभाव ही अपना अधिकार जमा लेगा ।एक तरफ मोहनीय के भेदों में मूल १६ कषायों का स्वरूप स्पष्ट प्रगट होता है । और दूसरी तरफ कषाय को तो वैसे भी सब बंधहेतुओं में सबसे बडा बंध हेतु कहा गया है। अब अन्तिम बात रही योग और वेद की । इधर गुणस्थानों में- अन्त में जाकर योग की बात की है। और इधर बंधहेतुओं में भी अन्तिम बंधहेतु योग है । तथा मोहनीय कर्म में भी चौथा विभाग वेद का है, जो मन-वचन-काया पर ही आधार रखता है । बिना इनके तो योगबंध होगा भी कैसे? इस तरह आप देख रहे हैं कि एक मात्र मोहनीय कर्म की ही प्रकृतियाँ है, तथा समस्त बंधहेतु भी एक मात्र मोहनीय कर्म के ही हैं । अभी ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीयादि दूसरे कर्मों की तो बात बीच में आती ही नहीं है। क्योंकि उन कर्मों के स्वतंत्र कोई बंधहेतु है भी नहीं । जो है वे बंधहेतु सब मोहनीय कर्म के ही हैं । हेतु-कारणभूत हेतु मोहनीय के होने के कारण इतना तो संसार में स्पष्ट हो ही जाता है कि....संसार की समस्त प्रवृत्तियाँ मोहनीय के आधार पर ही होती हैं । दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है। यह रहस्यात्मक बात "हेतु" शब्द स्पष्ट कर देता है । और कर्म बांधने की प्रक्रिया में हेतु का आधारभूत महत्व ही सबसे ज्यादा है । “किरइजीएण हेउहिंजेणं तो भन्नए कम्म" पू. देवेन्द्रसूरि म. ने कर्मग्रन्थ के प्रारंभ में ही कर्म की जो व्याख्या की है उसमें भी हेतु शब्द का प्रयोग किया है। यह स्पष्ट सूचित करता है कि... बिना हेतु के कर्म का बंध हो ही नहीं सकता है । इसलिए जब तक मन-वचन-काया के योगदि प्रवृत्तिशील सक्रिय रहेंगे तब तक-बंध हेतु सभी सार्थक कार्य करते रहेंगे । और उनके आधार पर जीवों को कर्मों का बंध होता ही रहेगा। व्याख्या इस बात को स्पष्ट करती है कि जीव के द्वारा हेतुपूर्वक जो क्रिया की जाती है वह अप्रमत्तभावपूर्वक "ध्यानसाधना" ९४७

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