Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 526
________________ हे भगवन् ! जैसे जैसे इस मन को समझाने के लिए हितोपदेश देता हूँ, मीठे वचन उपदेश से समझाने की कोशिश करता हूँ, तब उसमें से एक भी हितशिक्षा कान पर ग्रहण ही नहीं करता है । अर्थात् सुनता भी नहीं है। वह अपनी ही धुन में पागल बना रहता है । अरे ! इस मन को स्वर्ग के मालिक देवता इन्द्रादि भी समझाते हैं, अरे ! महान विद्वान पंडित लोग भी इस मन को बहुत कुछ समझाते हैं लेकिन यह साला मन समझता ही नहीं हे भगवन् ! मैंने सोचा कि यह मन कैसा होगा? क्या पुल्लिग-पुरुष जाति का होगा या किसी अन्य लिंगी होगा? लेकिन अब मुझे पता चला कि... नहीं यह मन तो नपुंसकलिंगी है। परन्तु ऐसा शक्तिहीन होने के बावजूद भी यह सभी पुरुषों को भी पीछे फेंक देता है। और संसार की अनेक बातों में यह समर्थ-सक्षम लगता है। भूत-पिशाचादि की विद्या भी साध सकता है । उन्हें भी वश में ले सके ऐसा समर्थ बनता है। अरे ! इसकी गति को कोई नहीं पहचान सकता है । इसकी गति को कोई नहीं रोक सकता है। . - . सच बात तो यह है कि- मन का स्वरूप-उसकी चंचलता-चपलता चाहे जितनी भी हो लेकिन जिस किसी ने भी इस मन को साध लिया है उसने सब कुछ साध लिया है। इसमें कोई संदेह नहीं है । और यह बात गलत भी नहीं है । “एक साधे सब सधन है" इस उक्ती के अनुसार बस, जिस किसीने भी मन को साध लिया है उसने तप-जप-ध्यान-क्रिया आदि सब कुछ साध लिया है ऐसा समझना चाहिए। कोई आकर यदि ऐसा कहे कि मैंने इस तरह मन साध लिया है तो शायद मैं उसे सत्य मानने के लिये तैयार नही हूँ। बस, यही बात सबसे ऊँची-बडी है। कोई मेरे जैसा ही यदि आकर कह दे कि मैंने मन को साध लिया है, वश में कर लिया है, तो यह बात विश्वासयोग्य नहीं लगती - अन्त में हार मानते हुए अवधूत योगी आनन्दघनजी जैसे महापुरुष कहते हैं कि हे भगवन्त ! दुनिया में कोई कहे कि मैंने मन वश में किया है तो बद्धिमानने के लिए तैयार नहीं होती है । लेकिन आप जैसे समर्थ महान भगवान ने इस मन को वश में कर लिया, इस और ऐसे मन पर विजय पा ली है यह मैंने आगमशास्त्र में सैद्धान्तिक बातें पढते समय जाना है । लेकिन वही मेरे लिये क्रियात्मक नहीं बन पा रहा है । इसलिये प्रभु ! जैसे आपने आपका मन जीता है वैसे ही मेरा भी मन ठिकाने ले आओ, तो मैं सच्चा मान लूँ । तब मुझे प्रतीति हो जाएगी। अनुभूति भी हो जाएगी। अप्रमत्तभावपूर्वक "ध्यानसाधना" ९३१

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